खतरे की घंटी
- गत लोकसभा चुनाव के मुकाबले प्रदेश में इस बार घट गया मतदान प्रतिशत
- वर्ष 2014 में पड़े 62.15 प्रतिशत वोट तो इस बार सिर्फ 57.85 फीसद ही पड़े वोट
- लोगों ने राष्ट्रीय मुद्दों को दरकिनार करते हुए स्थानीय मुददों को दी वरीयता
देहरादून। लोकसभा चुनाव में मतदान करने की अपील के लिये चलाये गये धुआंधार अभियान के बावजूद प्रदेशभर में लोगों ने वर्ष 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में किये मतदान के मुकाबले इस बार कम वोट डाले हैं। इसको एक अच्छा संकेत नहीं माना जा रहा है। कई दुर्गम स्थानों पर तो लोगों ने राष्ट्रीय मुद्दों को दरकिनार करते हुए स्थानीय मुददों को वरीयता देते हुए ‘रोड नहीं तो वोट नहीं’ की वजह से मतदान का बहिष्कार किया।
अगर इस बार प्रदेश की पांचों संसदीय सीटों पर हुए मतदान को गत लोकसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो लोगों की मतदान के प्रति घटती रुचि का संकेत मिल रहा है। वर्ष 2014 में टिहरी गढ़वाल सीट पर 57.50 फीसद वोट पड़े थे और इस बार घटकर 54.38 प्रतिशत मतदान रह गया। इस सीट पर वोट प्रतिशत कम होना इसलिये भी हैरान करने वाला है क्योंकि इस सीट में देहरादून जिले के कई विधानसभा क्षेत्र भी शामिल हैं। पौड़ी गढ़वाल संसदीय सीट पर पिछले चुनाव में 55.03 प्रतिशत और इस बार मात्र 49.89 वोट डाले गये जो आधे से भी कम हैं। इससे भी लगता है कि मतदान के प्रति लोगों का रुझान कम हो रहा है।
इसी प्रकार अल्मोड़ा सीट पर वर्ष 2014 के लोेकसभा चुनाव में 53.22 प्रतिशत लोगों ने मताधिकार का प्रयोग किया, लेकिन इस बार यह आंकड़ा आधे से भी कम यानी 48.78 तक गिर गया। इस सीट पर पूरे प्रदेश में सबसे कम मतदान किया गया है। सबसे अधिक चर्चित सीटों में शुमार नैनीताल—उधमसिंहनगर में गत संसदीय चुनाव में जहां 68.89 फीसद लोगों ने वोट डाले थे वहीं इस बार वोट प्रतिशत घटकर 66.39 फीसद रह गया। हालांकि संतोषजनक बात यह है कि इस सीट पर मतदान प्रतिशत प्रदेशभर में सबसे अधिक रहा। गत चुनाव में प्रदेश में सबसे अधिक वोट हरिद्वार संसदीय सीट पर डाले गये थे, लेकिन इस बार यह प्रदेश में दूसरे स्थान पर पिछड़ गया और यहां 66.24 प्रतिशत वोटरों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। इसे इस रूप में देखा जाये कि प्रदेश की पांचों सीटों पर गत लोकसभा चुनाव में जहां औसत चुनाव प्रतिशत 62.15 रहा था, वह इस बार घटकर मात्र 57.85 प्रतिशत रह गया जो प्रदेश के लोगों की मतदान के प्रति घटती रुचि को दर्शाता है। इसे राजनीतिक के विश्लेषक एक अच्छा संकेत नहीं मान रहे हैं।