उत्तराखंड के इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का क्रांतिकारी फैसला!

सुप्रीम ने अपने अहम निर्णय में कहा

  • उच्च जाति के व्यक्ति पर सिर्फ इसलिए केस नहीं दर्ज हो सकता क्योंकि उस पर एससी/एसटी समुदाय के व्यक्ति ने जड़ा है आरोप
  • शिकायकर्ता के एससी/एसटी समुदाय से होने का मतलब नहीं कि उच्च जाति के व्यक्ति को अपराधी मान लिया जाए
  • जाति के कारण एससी/एसटी समुदाय के व्यक्ति की जान-बूझकर प्रताड़ना नहीं हो तो एससी/एसटी ऐक्ट लागू नहीं होगा
  • अगर किसी चहारदिवारी के अंदर प्रताड़ित किया गया तो उच्च जाति के आरोपी पर एससी/एसटी ऐक्ट नहीं लगाया जाएगा

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि उच्च जाति के किसी व्यक्ति को उसके कानूनी अधिकारों से सिर्फ इसलिए वंचित नहीं किया जा सकता है क्योंकि उस पर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (एससी/एसटी) के किसी व्यक्ति ने आरोप लगाया है।
जस्टिस एल. नागेश्वर राव की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा, ‘एससी/एसटी ऐक्ट के तहत कोई अपराध इसलिए नहीं स्वीकार कर लिया जाएगा कि शिकायतकर्ता अनुसूचित जाति का है, बशर्ते यह यह साबित नहीं हो जाए कि आरोपी ने सोच-समझकर शिकायतकर्ता का उत्पीड़न उसकी जाति के कारण ही किया हो।’ एसटी/एसटी समुदाय के उत्पीड़न और उच्च जाति के लोगों के अधिकारों के संरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी काफी क्रांतिकारी मानी जा रही है।
तीन सदस्यीय पीठ की तरफ से लिखे फैसले में जस्टिस हेमंत गुप्ता ने कहा कि उच्च जाति के व्यक्ति ने एससी/एसटी समुदाय के किसी व्यक्ति को गाली भी दे दी हो तो भी उस पर एससी/एसटी ऐक्ट के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती है। हां, अगर उच्च जाति के व्यक्ति ने एससी/एसटी समुदाय के व्यक्ति को जान-बूझकर प्रताड़ित करने के लिए गाली दी हो तो उस पर एससी/एसटी ऐक्ट के तहत कार्रवाई जरूर की जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफ कहा कि जब तक उत्पीड़न का कोई कार्य किसी की जाति के कारण सोच-विचार कर नहीं किया गया हो तब तक आरोपी पर एससी/एसटी ऐक्ट के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती है। सर्वोच्च अदालत ने यह भी कहा कि उच्च जाति का कोई व्यक्ति अगर अपने अधिकारों की रक्षा में कोई कदम उठाता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसके ऊपर स्वतः एससी/एसटी ऐक्ट के तहत आपराधिक कृत्य की तलवार लटक जाए। सुप्रीम कोर्ट ने अपने पूर्व के फैसलों पर फिर से मुहर लगाते हुए कहा कि एससी/एसटी ऐक्ट के तहत उसे आपराधिक कृत्य ठहराया जा सकता है जिसे सार्वजनिक तौर पर अंजाम दिया जाए, न कि घर या चहारदिवारी के अंदर जैसे प्राइवेट प्लेस में।
बेंच ने यह टिप्पणी एक पुरुष को एक महिला को जाति संबंधी गाली देने के लिए आपराधिक आरोप से मुक्त करते हुए दी। पीठ ने कहा कि आरोपी पुरुष और शिकायतकर्ता महिला के बीच उत्तराखंड में जमीन की लड़ाई चल रही थी। दोनों ने इस संबंध में एक-दूसरे के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा रखा था। बाद में महिला ने यह कहते हुए एससी/एसटी ऐक्ट के तहत मुकदमा दर्ज करा दिया कि पुरुष ने सहयोगियों के साथ मिलकर महिला को खेती करने से बलपूर्वक रोक दिया और उन्होंने महिला को जाति संबंधी गालियां भी दीं।
मामले में तथ्यों की पड़ताल करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पुरुष पर घर की चहारदिवारी के अंदर गाली-गलौज करने का आरोप है, न कि सार्वजनिक तौर पर। इसलिए, उसके खिलाफ एससी/एसटी ऐक्ट के तहत कार्रवाई करना उचित नहीं होगा। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि जब तक कोई व्यक्ति एससी/एसटी समुदाय के व्यक्ति को उसे जाति के आधार पर प्रताड़ित करने की मंशा से भला-बुरा नहीं कहता है और जब तक उत्पीड़न की घटना का कोई गवाह नहीं हो, तब तक किसी उच्च जाति के व्यक्ति के खिलाफ एससी/एसटी ऐक्ट के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती है।
बेंच ने कहा कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारक) कानून की धारा-3 (1) के तहत याचिकाकर्ता आरोपी के खिलाफ मामला नहीं बनता और आरोप पत्र खारिज किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने 2008 के अपने पहले के फैसले का हवाला दिया और कहा था कि अगर घर के बाहर या जैसे किसी घर के सामने उसके कैंपस में अपराध किया जाता है जिसे घर के बाहर की सड़कों से देखा जा सकता है तो वह निश्चित तौर पर पब्लिक प्लेस माना जाएगा क्योंकि कोई भी देख सकता है। मौजूदा मामले में घर के अंदर महिला को गाली देने का आरोप है और यह कथित मामला ऐसा नहीं है कि किसी के सामने हुआ हो।  बाद में यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुुुंच गया था। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को क्रांतिकारी माना जा रहा है।

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