पहाड़ की पीड़ा : 1,702 गांव हुए निर्जन और करीब सवा लाख ने किया पलायन!

देहरादून। विकास के बड़े बड़े दावों और रंगीन सपने दिखाने के बीच उत्तराखंड ने 9 नवंबर को अपनी स्थापना की 22वीं वर्षगांठ धूमधाम से मनाई। जबकि हकीकत में राज्य अपने गांवों से पलायन की जटिल समस्या से जूझ रहा है। विशेष रूप से पहाड़ी इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए। जहां आजीविका के संसाधनों की कमी, बेहाल शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के कारण यह समस्या विकराल रूप लेती जा रही है।
हालांकि कोरोना काल में लॉकडाउन के दौरान दूर-दराज के इलाकों से हजारों की संख्या में लोग यहां अपने गांवों को लौट गए थे। उस समय शहरों में बेहतर जीवन की उम्मीद धराशायी हो गई थी, लेकिन तमाम दावों के बावजूद ‘रिवर्स पलायन’ के नाम पर उनके लिये हालात इतने अच्छे साबित नहीं हुए।
विडंबना यह रही कि उनमें से अधिकांश के पास अपने मूल स्थान पर रोजगार के अवसरों की कमी के कारण अपनी आजीविका कमाने के लिए फिर से घर छोड़ने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। उनमें से केवल 5-10 प्रतिशत ही वे लोग गांवों में रह गए हैं, जिनके पास शहरों में भरोसेमंद नौकरी नहीं थी।
इस भयावह तस्वीर का एक रुख दिखाते हुए ग्रामीण विकास और पलायन रोकथाम आयोग के उपाध्यक्ष एसएस नेगी का कहना है कि राज्य में कम से कम 1,702 गांव निर्जन हो गए हैं। क्योंकि निवासियों ने नौकरियों और बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की तलाश में शहरी क्षेत्रों में पलायन किया है। पौड़ी और अल्मोड़ा जिले पलायन से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं।
उन्होंने कहा कि उत्तराखंड के गांवों से कुल 1.18 लाख लोग पलायन कर चुके हैं। ज्यादातर पलायन बेहतर जीवन जीने की आकांक्षाओं के कारण हुआ है। अधिकांश पलायन बेहतर रोजगार के अवसरों की तलाश के कारण हुआ था। खराब शिक्षा व स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे, कम कृषि उपज या जंगली जानवरों द्वारा खड़ी फसलों को नष्ट करने के कारण भी लोग पलायन कर गए हैं। पहले लोग राज्य से बाहर मुंबई और दिल्ली जैसे बड़े शहरों में पलायन करते थे।
नेगी के अनुसार हाल के वर्षों में पलायन स्थानीय प्रकृति का रहा है। क्योंकि लोग गांवों से आसपास के शहरों में जा रहे हैं। लोग राज्य से बाहर नहीं, बल्कि जिले के विभिन्न शहरों में पलायन कर रहे हैं। हरिद्वार के गांवों के लोग जिले के रुड़की या भगवानपुर की ओर पलायन कर रहे हैं या पौड़ी के ग्रामीण जिले के कोटद्वार, श्रीनगर या सतपुली शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। यह पलायन उन्हें कस्बों में जीवन यापन करने में मदद करता है और साथ ही, अपनी जड़ों के संपर्क में रहता है। वे सप्ताहांत पर अपने गांवों का दौरा कर सकते हैं, क्योंकि वे बहुत दूर नहीं हैं।
नेगी के अनुसार लॉकडाउन के बाद अपने गांवों में रहने वाले लोगों को काम और सम्मान का जीवन देना राज्य सरकार की सबसे बड़ी चुनौती है. उन्होंने महसूस किया कि पर्यटन जैसे सेवा क्षेत्र को बढ़ावा देना ही प्रवास पर ब्रेक लगाने का एकमात्र तरीका हो सकता है क्योंकि पहाड़ों में बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण संभव नहीं है। यह स्थानीय आबादी के लिए रोजगार के कई अवसर पैदा कर सकता है और पलायन को नियंत्रित कर सकता है।
उन्होंने इस साल चारधाम यात्रा में रिकॉर्ड संख्या में श्रद्धालुओं के आने की ओर इशारा करते हुए कहा कि बेहतर सुविधाओं से और अधिक पर्यटक आ सकते हैं। जब चारधाम यात्रा मार्ग के अलावा ऐसा ही कुछ उत्तराखंड के बाकी हिस्सों में भी होगा तो तस्वीर बदल जाएगी। हालांकि यह तभी होगा जब सभी मौसम में सड़कें चालू हो जाएंगी।
नेगी ने कहा कि एक और चीज जो पलायन पर लगाम लगाने में मदद कर सकती है, वह है मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना। जो लोगों को मुर्गी पालन, डेयरी, आतिथ्य और बागवानी क्षेत्रों में अपना खुद का व्यवसाय शुरू करने के लिए आसान ऋण प्रदान करती है। उन्होंने कहा कि अगर पहाड़ी गांवों में प्रत्येक परिवार की आमदनी प्रति माह 10 हजार रुपये हो जाए तो उनका पलायन रुक सकता है। इसके लिये हर गांव पर फोकस करना होगा क्योंकि गांव दर गांव अलग तरह की अपनी अपनी समस्याएं हैं।

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