मोदी 2.0 : एक ‘अंधे मोड़’ पर जाकर ठहरा पहला साल!

अपने-अपने आसमां

  • कोरोना महामारी के फैलने से पहले 11 साल में सबसे नीचे पहुंच गई थी जीडीपी, सीएए पर देशभर में हुई प्रतिक्रिया से भारत की सेक्युलर छवि पर हुआ असर
  • विदेश नीति : पाकिस्तान पर सर्जिकल और एयरस्ट्राइक के दौरान बाकी राष्ट्रों के मिले समर्थन से मोदी की विदेश नीति की तारीफ होती थी, लेकिन अब आर्टिकल 370 और सीएए पर बाकी देशों का साथ नहीं मिला
  • धार्मिक असहिष्णुता : मोदी के दूसरे कार्यकाल में भी गाय के नाम पर मॉब लिंचिंग जारी रही, कोरोना महामारी के दौरान देशभर से मुस्लिमों की पिटाई, उनसे फल-सब्जी न खरीदने की आईं खबरें

नई दिल्ली। दुनियाभर में कोरोना महामारी से निपटने के लिए अलग-अलग देशों की सरकारों की तैयारियों को ट्रैक करने वाले ऑक्सफोर्ड कोविड-19 गवर्मेंट रिस्पॉन्स ट्रैकर ने अप्रैल में भारत को 100 में से 100 पॉइंट दिए थे। महामारी को फैलने से रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन ने भारत को कोरोना से निपटने की तैयारियों में अमेरिका, इटली समेत कई विकसित देशों से आगे रखा था। डब्लूएचओ ने भी भारत के जल्दी लॉकडाउन के फैसले की तारीफ की थी, लेकिन इसके बाद क्या हुआ?
भारत अब कोरोना के सबसे ज्यादा प्रभावित देशों की लिस्ट में 9वें स्थान पर है। अमेरिका और ब्राजील के बाद अब भारत में ही कोरोना के सबसे ज्यादा नए मामले सामने आ रहे हैं। गत 2 दिनों से हर दिन 7 हजार से ज्यादा संक्रमित मिल रहे हैं। जिन यूरोपीय देशों में पहले हर दिन 7-7 हजार से ज्यादा मामले मिल रहे थे वहां इनकी संख्या 10 गुना तक कम हो गई है। मोदी सरकार के इस महामारी से लड़ने के अपने जो भी दावे हों, लेकिन ये आंकड़े इशारा करते हैं कि मोदी सरकार ने कोरोना की रोकथाम में जो शुरुआती बढ़त हासिल की थी, अब वो कहीं खो गई है। ऐसे ही 9 और मामलों पर एक रिपोर्ट…

1. पड़ोसी देश : हमेशा साथ देने वाला नेपाल भी दिखा रहा आंख
नेपाल भारत और चीन दोनों का पड़ोसी देश है। दोनों ही देश इसे अपने पक्ष में करने के लिए अपनी-अपनी विदेश नीतियों में उसे हमेशा से तरजीह देते रहे हैं। भारत के नेपाल के साथ संबंध हमेशा अच्छे ही रहे हैं लेकिन हाल ही में लिपुलेख को लेकर दोनों देशों के बीच सीमा विवाद शुरू हो गया है।
लिपुलेख भारत, नेपाल और चीन की सीमा से लगता है। भारत इस इलाके को उत्तराखंड का हिस्सा मानता है और नेपाल इसे अपना हिस्सा बताता है। नेपाल का भारत से विवाद होना चीन के खिलाफ रणनीतिक दृष्टि से एक खास साथी को खो देने जैसा है।
वर्ष 2015 में नेपाल में मधेसी आंदोलन के दौरान भी भारत और नेपाल के बीच संबंधों में खटास आई थी। भारत से नेपाल होने वाला निर्यात बॉर्डर पर रोक लिया गया था।
इस समय चीन के साथ भी भारत के संबंध ज्यादा बेहतर नहीं है। इसी महीने पूर्वी लद्दाख की पैंगोंग झील के उत्तरी किनारे और सिक्किम के नाकू ला सेक्टर में भारत-चीन के सैनिकों के बीच टकराव जैसी स्थिति बनी। इसके बाद किसी देश का नाम लिए बिना चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने सेना को तैयार रहने के निर्देश दिए थे।
वर्ष 2017 में 73 दिनों तक चले डोकलाम विवाद के बाद भारत-चीन के रिश्तों में सुधार लाने में दोनों ही देशों की सरकार कुछ खास नहीं कर पाई। उधर, 2008 मुंबई अटैक के बाद से ही पाकिस्तान से हमारे रिश्ते नहीं सुधर पाए हैं। हालांकि पहले कार्यकाल में हुआ मोदी का पाकिस्तानी दौरा भी कुछ खास बदलाव न ला सका था।

2. विदेश नीति : पहले कार्यकाल में पाकिस्तान के खिलाफ सख्त कदमों पर दुनियाभर के देशों का साथ मिला था लेकिन इस बार आर्टिकल 370 और सीएए पर भारत की आलोचना हुई। आर्टिकल 370 हटने के बावजूद कश्मीर में कोई बड़ी हिंसा या आंदोलन न होने देना मोदी सरकार की कामयाबी रही, लेकिन विदेश नीति के तौर पर इस कदम से कश्मीर मुद्दे का कुछ हद अंतरराष्ट्रीयकरण भी हुआ जो भारत सरकार कभी नहीं चाहती थी।
जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल ने कश्मीर के हालात काबू से बाहर बताए थे। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प कई बार मध्यस्थता कराने की पहल कर रहे थे। यूरोपीयन संसद में भी 370 के हटने पर चर्चा हुई थी। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में 16 अगस्त 2019 को कश्मीर मुद्दे पर चर्चा हुई। 1965 के बाद 55 सालों में यह पहली बार था, जब यूएनएससी में कश्मीर पर बैठक रखी गई।
दिसंबर में नागरिकता संशोधन बिल लाने के बाद हुए विरोध प्रदर्शनों के कारण भी मोदी सरकार को आलोचना झेलनी पड़ी।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ने सीएए को भेदभावपूर्ण बताया था। यूएन महासचिव एंटोनियो गुतरेज ने इस बिल के खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों को बलपूर्वक बंद करवाने के सरकार के रवैये पर भी चिंता जाहिर की थी। मलेशिया, टर्की, कुवैत, अफगानिस्तान जैसे कई देशों ने सीएए के प्रदर्शनों के दौरान हुई हिंसा पर चिंता जताई थी।

3. दिल्ली दंगे: हिंसा में दंगाइयों के साथ पुलिस के दिखने से गृह मंत्रालय की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठा। दिल्ली चुनाव के दौरान भाजपा नेताओं ने सीएए के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों के खिलाफ कई उकसावे वाले बयान दिए थे। चुनाव के बाद भी ये जारी रहे। भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने भी 23 फरवरी को ऐसा ही उकसावे वाला बयान दिया। इसके अगले दिन ही दिल्ली में दंगे भड़क गए।
वर्ष 1984 के सिख दंगों के 36 साल बाद देश की राजधानी में इतने बड़े स्तर पर दंगे हो रहे थे। तीन दिनों तक हिंसा होती रही। कई तस्वीरों में तो गृह मंत्रालय के अधीन आने वाली दिल्ली पुलिस दंगाइयों के साथ पत्थर फेंकते नजर आई। इस हिंसा में 50 से ज्यादा लोगों की मौत हुई।
इसमें खास बात यह है कि जब दिल्ली में हिंसा भड़की थी तब अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प भारत दौरे पर थे। ऐसे में विदेशी मीडिया ने ट्रम्प के दौरे के दौरान भड़के इन दंगों को प्रमुखता से छापा। इंटरनेशनल मीडिया में मोदी सरकार पर दंगों पर समय रहते काबू न करने के लिए आलोचना हुई।

4. धार्मिक असहिष्णुता : भारत की सेक्युलर छवि पर असर हुआ। अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय धार्मिक आजादी आयोग (यूएससीआईआरएफ) ने इस साल अप्रैल में अपनी रिपोर्ट में सीएए, एनआरसी, धर्मांतरण विरोधी कानून, मॉब लिंचिंग, जम्मू-कश्मीर से विशेष अधिकार छिनने, अयोध्या में राम मंदिर सुनवाई के दौरान भारत सरकार के एकतरफा रवैये जैसी कई चीजों के आधार पर भारत को धर्म के आधार पर भेदभाव करने वाला देश बताया था।
कमीशन ने अमेरिका के स्टेट डिपार्टमेंट को भारत को विशेष चिंताजनक स्थिति वाले देशों (सीपीसी) की लिस्ट में डालने का सुझाव दिया था। इसी कमीशन ने यह भी कहा था कि कोरोना के दौरान भारत में मुस्लिमों को बलि का बकरा बनाया गया।मोदी के पहले कार्यकाल की तरह ही दूसरे कार्यकाल में भी मॉब लिंचिंग की घटनाएं जारी रहीं। झारखंड में जून 2019 में 24 साल के तबरेज अंसारी की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई थी।
ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट के मुताबिक मई 2015 से दिसंबर 2019 तक गौमांस खाने और बेचने की शंका के आधार पर 50 लोगों की हत्या हुई। ऐसे ही हमलों में 250 लोग घायल भी हुए। यही नहीं मार्च में लॉकडाउन के बाद जब कोरोना के मामले बढ़ने लगे तो मोदी सरकार ने इसका ठीकरा जमातियों पर फोड़कर अपने हाथ झाड़ लिये। इसका असर यह हुआ कि गांवों में मुस्लिम व्यापारियों के प्रवेश पर पाबंदी लगने के पोस्टर चिपकाए गए। मुस्लिम फल-सब्जी बेचने वालों को गली-मोहल्लों से भगाया जाने लगा।
ऐसी तमाम खबरें पिछले 2 महीने से देश के कोने-कोने से आती रही हैं। इन घटनाओं के कारण बाहर भारत की सेक्युलर छवि को नुकसान पहुंचा। मध्य प्रदेश के इंदौर जिले के एक गांव में मुस्लिम व्यापारियों के प्रवेश को लेकर एक पोस्टर लगाया गया था। इसमें लिखा गया था कि मुस्लिम व्यापारियों का गांव में प्रवेश निषेध है।

5. सीएए के खिलाफ तीन महीने से जारी प्रदर्शन कोरोना के कारण रूक पाए, मोदी सरकार ने कोई पहल नहीं की। नागरिकता संशोधन बिल जैसे ही संसद से पास हुआ, उसके अगले दिन से ही देशभर में इसके खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गए थे। आईआईएम, आईआईटी जैसे संस्थानों समेत देशभर की कई यूनिवर्सिटियों के छात्र संगठन सड़कों पर उतरने लगे थे। धीरे-धीरे आमजन भी इसमें शामिल होते गए। शाहीन बाग सबसे बड़ा उदाहरण बना, जहां महिलाएं तीन महीनों तक 24 घंटे सड़कों पर बैठीं रहीं। शाहीन बाग में 14 दिसंबर की रात से लॉकडाउन लगने तक (24 मार्च) महिलाओं का धरना जारी था।
इस तर्ज पर देशभर में कई जगह मुस्लिम महिलाओं ने शाहीन बाग बनाएं। यूपी में प्रदर्शन रोकने के लिए योगी सरकार ने जुर्माना लगाया। लेकिन, देशभर में कई जगहों पर यह प्रदर्शन जारी रहे। केन्द्र सरकार इन प्रदर्शनकारियों को विश्वास में नहीं ले पाई और न ही बातचीत के जरिए कोई हल निकाला जा सका। इतने लंबे समय तक और इतने बड़े स्तर पर हुए ये प्रदर्शन देश में पहले कभी नहीं देखे थे।

6. अर्थव्यवस्था : कोराना के पहले ही अर्थव्यवस्था गोते खा रही थी, नए रोजगार पैदा करने में भी सरकार फेल रही। वर्ष 2019-20 के दौरान जीडीपी ग्रोथ 4.2% रही। यह पिछले 11 सालों का न्यूनतम स्तर है। अब कोरोना के बाद तो इसका नेगेटिव जाने का अनुमान है। मोदी सरकार नए रोजगार भी नहीं ला पाई।
मोदी के पिछले कार्यकाल में पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे की एक रिपोर्ट में सामने आया था कि देश में बेरोजगारी दर 45 सालों के सबसे उच्च स्तर पर है। इसमें अब और इजाफा हो गया है। आई सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की एक रिपोर्ट के मुताबिक लॉकडाउन के कारण महज अप्रैल महीने में 12 करोड़ भारतीयों को नौकरी गंवानी पड़ी है। चौथी तिमाही में विकास दर मात्र 3.1 प्रतिशत रही।

7. हेल्थ सेक्टर : मोदी हकीकत जानते थे इसलिए कोराना से बचाव के लिए बहुत पहले ही लॉकडाउन लगा दिया था। देश में हेल्थ पर कुल जीडीपी का 2% से भी कम खर्च होता है। जबकि अमेरिका में जीडीपी का 8.5% और जर्मनी में 9.4% खर्च हेल्थ पर किया जाता है। डब्लूएचओ के मुताबिक हेल्थ पर जीडीपी का हिस्सा खर्च करने के मामले में 191 देशों में भारत 184वें नम्बर पर आता है।
मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के पहले साल में भी इस सेक्टर में कुछ खास सुधार नहीं देखा गया। हालांकि मोदी सरकार ने 25 सितंबर से शुरू हुई आयुष्मान भारत योजना के तहत देश के 10 करोड़ परिवारों या 50 करोड़ लोगों को सालाना 5 लाख रुपये का स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध कराने की बात कही है जो एक बड़ा कदम है।

8. महंगाई दर : दिसंबर में पिछले 7 सालों के उच्चतम स्तर पर थी। भारत में महंगाई दर मार्च 2019 के बाद से ही लगातार बढ़ रही है। मार्च 2019 में खाद्य पदार्थों की महंगाई दर 0.30% थी जो दिसंबर 2019 में 14.12% पर पहुंच गई थी। यह साल 2013 के बाद सबसे ज्यादा बढ़ोतरी थी। खुदरा महंगाई दर भी मार्च 2019 में 2.86% थी, वह मार्च 2020 में 5.54% पर पहुंच गई।

9. प्रेस की आजादी : हर साल लगातार भारत की रैंकिंग गिर रही है। वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत की रैंकिंग 142 है। यह पिछले तीन सालों से लगातार गिर रही है। 2019 में यह 140 थी और 2018 में यह 138 थी। हाल ही में 11 मई को गुजरात के एक पत्रकार धवल पटेल को देशद्रोह का केस लगाकर जेल में बंद कर दिया गया है। उन्होंने 7 मई के एक आर्टिकल में लिखा था कि कोरोना की रोकथाम न कर पाने के कारण गुजरात सीएम विजय रुपाणी अपना पद खो सकते हैं। जिसकी दुनियाभर में निंदा हुई।

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