पहाड़ की ‘पहाड़’ सी पीड़ा
- पहाड़ के बहुत कम काम आते हैं पहाड़ का पानी और जवानी
- कितने भी बड़े क्यूं न हो जाएं, हम आज भी नहीं जी पाते दोहरा चरित्र
- जैसे बाहर दिखते हैं, वैसे ही अन्दर से होते हैं हम पहाड़ के बच्चे
- पहाड़ से बाहर शहरों में रहकर भी बचाकर रखते हैं अपना अस्तित्व
- अपने माँ बाप को ये कभी नहीं बता पाते कि हम उन्हें कितना चाहते हैं
- पहाड़ से निकले बच्चे गिरते-संभलते लड़ते—भिड़ते बनते हैं दुनिया का हिस्सा
- लाख शहर में रहें लेकिन घर-गांव की अनमोल यादें जीवनपर्यन्त करती हैं पीछा
देहरादून। पहाड़ की जिंदगी कितनी कठिन और दर्दों भरी होती है, यह हम जैसे किसी उस युवा से पूछिये जिसने पहाड़ की गोदियों में अपना जीवन शुरू किया था। एकलव्य होना हमारी नियति है शायद। पहाड़ से निकले बच्चों की दुनिया उतनी रंगीन नहीं होती वो ब्लैक एंड व्हाइट में रंग भरने की कोशिश जरूर करतें हैं। हम पांचवीं तक घर से पाटी बुल्ख्या लेकर स्कूल गए थे। पाटी को हमने तवे की राख घोट—घोट कर पिलायी थी। कांच की दवात से पाटी घिसघिस चमकाई थी। सुबह स्कूल जाते सूर्य किरणों में पाटी को हमने दगड़्यों के मुंह पर चम चम चमकाई थी। पाटी को जीभ से चाटकर अक्षर मिटाने की हमारी स्थाई आदत थी। पहाड़े याद न होने के तनाव में बांस की कलम चबाकर तनाव मिटाया था।
स्कूल में चटाई न होने पर घर से बोरी बैठने के लिए बगल में दबाकर भी ले जातें थे। छठी कक्षा में पहली दफा हमने अंग्रेजी के अक्षर देखे, लेकिन बढ़िया अंग्रेजी हमें बारहवीं तक भी नहीं आयी थी। हम पहाड़ के बच्चों की अपनी एक अलग दुनिया थी। कपड़े के बस्ते में किताब और कापियां ढंग से लगाने की हममें एक कौशलता थी।पाटी घोटने की तन्मयता हमारी एक किस्म की साधना ही थी। हर साल जब नई कक्षा की कापी किताबें मिलतीं तब उन पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का एक उत्सव जैसे होता था। कभी सूखी रोटी, कभी दाल़ गैथ की भरी रोटी पन्नी में लपेटकर हमारा लंच बाक्स होता था, तो कभी आड़ू, नासपाती, संतरे, माल्टा, मुंगरी कखड़ी ही पन्नी भरकर लंच बाक्स होता था।नीली कमीज और खाकी पैंट पहनकर जब हम इंटर कालेज पहूँचे तो पहली दफा खुद के कुछ बड़े होने का अहसास हुआ। सुबह धै लगा लगाकर दगड़्यों को स्कूल के लिए बुलाते, टोली बनाकर 5-7 किलोमीटर की उकाल उंदार सरपट दौड़कर स्कूल जाना बांये हाथ का खेल होता था।
कभी मन न किया, तो जंगल में छुपकर गुच्छी कंचे खेलकर स्कूल से कट मारा था।गुरुजी से स्कूल में पिटते, मुर्गा बनते, मगर हमारा ईगो हमें कभी परेशान न करता। हम पहाड़ के बच्चे तब तक जानते नहीं थे कि ईगो होता क्या है। गुरु जी की पिटाई व सजा का रंज कुछ देर में भूलकर, फिर दगड़्यों के संग पूरी तन्मयता से खेलते व खुचरिंडी करते। रोज़ सुबह प्रार्थना के समय पीटी के दौरान एक हाथ का फासला लेना, फिर भी जानबूझ कर धक्का मुक्की में अड़ना भिड़ना, सावधान विश्राम होना, हमारी आदत थी।सुड़क—सुड़क की ध्वनि के साथ चाय पीना, अनजान जगह जाकर रास्ता कई कई दफा पूछना। कपड़ों को सिलवट से बचाए रखना और रिश्तों को अनौपचारिकता से बचाए रखना हमें नहीं आता है।
अपने—अपने हिस्से का निर्वासन झेलते हम बुनते हैं। कुछ आधे अधूरे से ख़्वाब और फिर जिद की हद तक उन्हें पूरा करने का जुटा लाते हैं आत्मविश्वास।कितने भी बड़े क्यूं न हो जाएं हम आज भी दोहरा चरित्र नही जी पाते हैं, जैसे बाहर दिखते हैं, वैसे ही अन्दर से होते हैं। हम पहाड़ से निकले बच्चे थोड़े अलग से होते हैं पहाड़ से बाहर शहरों में रहकर भी अपना अस्तित्व बचाकर रखते हैं। हम पहाड़ के निकले बच्चे सपने देखने का सलीका नही सीख पाते, अपने माँ बाप को ये कभी नहीं बता पाते कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं। हम पहाड़ से निकले बच्चे गिरते—संभलते लड़ते—भिड़ते दुनिया का हिस्सा बनते हैं। कुछ मंजिल पा जाते हैं और कुछ यूं ही खो जाते हैं। रोजगार के लिए लाख शहर में रहें लेकिन पहाड़ के बच्चों के अपने संकोच, घर गांव की अनमोल यादें जीवनपर्यन्त पीछा करती हैं।