विजय जड़धारी ‘लाइफ टाइम अचीवमेंट’ अवॉर्ड से सम्मानित, जानें उत्तराखंड के इस अनोखे किसान के बारे में….

देहरादून। हमारी भागदौड़ भरी जिंदगी में हम शायद ही इस बात पर गौर करते हों कि ‘बीज’ हमारे लिए कितने जरूरी होते हैं। लेकिन उत्तराखंड के विजय जड़धारी भारतीय बीजों की अहमियत को अच्छे से जानते हैं और समझते भी हैं। यही कारण है कि कई दशकों से विजय जड़धारी ने ‘बीजों के संरक्षण’ के लिए आंदोलन छेड़ा हुआ है। बीजों को बचाने के लिए विजय ने 1986 में ‘बीज बचाओ आंदोलन’ शुरू किया था, जोकि अब तक जारी है। इसी मुहिम के लिए डॉ. वाईएस परमार वानिकी विश्वविद्यालय सोलन हिमाचल द्वारा विजय जड़धारी को लाइफ टाइम अचीवमेंट से सम्मानित किया गया। यह सम्मान केंद्रीय पशुपालन डेरी एवं मत्स्य मंत्री पुरुषोत्तम रूपाला द्वारा उन्हें पारंपरिक बीज संरक्षण-संवर्धन, प्राकृतिक जैविक खेती की बुनियाद स्थापित करने और लगातार तीन दशक से अधिक समय तक जीवन में कई उल्लेखनीय कार्यों के लिए दिया गया है। इस अवसर पर मिट्टी संरक्षण, पानी, जैविक खेती, मशरूम उत्पाद, बागवानी, मौन पालन शिक्षा, दुग्ध उत्पाद आदि क्षेत्र में सम्मानित हुए किसानों को संबोधित करते हुए विजय जड़धारी ने कहा कि हमारा उद्देश्य जैव विविधता, पारंपरिक खेती व मिश्रित खेती को बढ़ावा देकर अच्छे स्वास्थ्य को पाना और आज के खतरनाक दौर में बीमारियों से बचना होना चाहिए।
कौन हैं विजय जड़धार…
विजय जड़धारी भारत के संरक्षणवादी कार्यकर्ता हैं। वे ‘बीज बचाओ आन्दोलन’ के प्रणेता हैं। उन्होने ‘बारहनाजा’ नामक एक पुस्तक की रचना की जिस पर उन्हें गांधी शान्ति प्रतिष्ठान, नयी दिल्ली द्वारा सन् 2007 का ‘प्रणवानन्द साहित्य पुरस्कार’ प्रदान किया गया। खेती की क्षेत्र में किए गए नायाब कामों के लिए विजय को साल 2009 में इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार से नवाजा गया। वे चिपको आन्दोलन से भी सम्बद्ध रहे हैं।
क्या है ‘बीज बचाओ आंदोलन’ ?
ये बात है 1980 के दशक की। उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल में रहने वाले समाज सेवी विजय जड़धारी को इस बात का एहसास हुआ कि वक्त के साथ-साथ उत्तराखंड के किसान अपनी प्राचीन फसलों को खोते जा रहे हैं। भारत मॉडर्न हो रहा था और हाइब्रिड बीजों का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा था। इसके चलते प्राचीन काल से इस्तेमाल होते आ रहे बीजों का इस्तेमाल खत्म होने लगा था। विजय को इस बात का डर था कि कहीं आने वाले वक्त में हमारे पास अपने असली प्राचीन बीज बचें ही नहीं। इस बात ने उन्हें और उनके कुछ दोस्तों को इतने गहन चिंतन में डाल दिया कि उन्होंने इसका रास्ता खोजना शुरू कर दिया। इसके चलते ही उन्होंने फैसला किया कि वह एक आंदोलन शुरू करें, ताकि भविष्य में हो सकने वाली इस बड़ी परेशानी को रोका जा सके। इस सोच के साथ ही साल 1986 में विजय और उन्के कुछ दोस्तों ने मिलकर ‘बीज बचाओ आंदोलन’ की शुरुआत की। उन्होंने पहले अपने आस-पास के गांव में जा कर लोगों को बीज की अहमियत बताने की कोशिश की। उन्होंने किसानों को समझाया कि बीजों का संरक्षण कितना जरूरी है। हालांकि, शुरुआती दिनों में लोगों ने उनकी बातों को महज एक मज़ाक समझा लेकिन विजय रुके नहीं और उन्होंने अपना आंदोलन जारी रखा। विजय ने अपने जीवन में कभी हार नहीं मानी। उन्होंने अपनी मुहीम को जारी रखा और जितने बीज वह संरक्षित कर सकते थे, वो करते गए। इतना ही नहीं उन्होंने किसानों को परंपरागत तरीके से एक ही खेत पर समय के अनुसार अलग-अलग फसल उगाना भी सिखाया। अपने कई सालों के इस संघर्ष में वह कई किसानों की दहलीज पर पहुंचे।
‘जीरो बजट’ खेती से कैसे कमाया नाम…
सालों की मेहनत के बाद विजय की कोशिश आज रंग लाने लगी है। साल 2020 में हर कोई विजय जड़धारी के किए गए एक प्रयोग से हैरान हो गया। ऐसा इसलिए, क्योंकि साल 2020 में विजय ने बिना खेत जोते उत्तराखंड के अपने खेत में गेहूं की फसल तैयार करके दिखा दी। इसपर विश्वास करना बहुत मुश्किल है मगर विजय ने इस असंभव काम को करके दिखाया।
अपने इस प्रयोग को उन्होंने ‘जीरो बजट खेती’ का नाम दिया। विजय ने बताया कि जब नवंबर 2019 में उन्होंने धान की कटाई की तो खेत में खाली हुई जगह पर उन्होंने गेहूं बो दिया और धान की पराली से उसे ढक दिया। जैसे ही धान की पराली सूख गई वैसे ही गेहूं अंकुरित होने शुरू हो गए। देखते ही देखते कुछ समय में उनके गेहूं कटाई के लायक हो गए। अब विजय अन्य किसानों को भी अपनी यह तकनीक सिखाना चाहते हैं।
खेती की क्षेत्र में किए गए ऐसे ही कामों के लिए विजय को कई पुरस्कारों से नवाजा गया। हालांकि, उनके द्वारा किए गए काम का मोल किसी पुरस्कार से नहीं लगाया जा सकता है। बिना किसी निजी स्वार्थ के जिस तरह से विजय ने सालों तक यह काम किया है वह वाकई सराहनीय है।

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