- आम आदमी पार्टी के उत्तराखंड में सभी 70 विस सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा को स्थानीय जनता ने नहीं दिया कोई भाव
देहरादून। अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने उत्तराखंड में सभी 70 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा को स्थानीय जनता ने कोई भाव नहीं दिया है। इससे लगता है कि अगर आम आदमी पार्टी (आप) ने यहां अपने प्रत्याशी चुनाव में उतारे तो उसे करारी हार का सामना करना पड़ सकता है। अगर गाहे बगाहे केजरीवाल ने उत्तराखंड में आगामी विधानसभा चुनावों में अपने उम्मीदवार उतारे तो पिछले दिनों की वे कड़वी यादें भी उत्तराखंडवासियों में दिलों में जिंदा हो सकती हैं जब दिल्ली में हुए दंगों में उत्तराखंड के निर्दोष युवक दिलबर नेगी को जिंदा जला डाला गया था और इस वीभत्स घटना के पीछे केजरीवाल का खासमखास पार्षद ताहिर हुसैन का ही हाथ निकला था। जिसकी बेहद तीव्र प्रतिक्रिया उत्तराखंड में हुई थी।
अन्य राज्यों में आप के चुनाव लड़ने के इतिहास को देखें तो साफ पता चलता है कि वह बुरी तरह फ्लॉप साबित हुई है। वर्ष 2017 में गुजरात के विधानसभा चुनाव में 29 उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन कोई भी जीत का मुंह नहीं देख पाया। वर्ष 2017 में ही गोवा के विस चुनावों में आप के उम्मीदवारों की उम्मीदें धूल में मिल गईं। हरियाणा में आप ने 46 प्रत्याशी विस चुनाव में उतारे थे, लेकिन उन सभी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी। वर्ष 2018 में आप ने छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में चुनाव लड़े और वह अपना खाता तक नहीं खोल पाई। राजस्थान में तो केजरीवाल की पार्टी को मात्र 0.7 प्रतिशत वोट ही मिल पाये थे। ये सब आंकड़े दर्शाते हैं कि उत्तराखंड में भी अन्य राज्यों की भांति केजरीवाल को करारी हार का सामना ही करना पड़ेगा
गत दिनों आम आदमी पार्टी (आप) सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल के उत्तराखंड की सभी सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा को मीडिया में प्रमुखता से जगह दी गई थी। जिसमें कहा गया था कि आप ने उत्तराखंड में आगामी विधानसभा चुनाव के दौरान राज्य की सभी 70 सीटों पर प्रत्याशी उतारने और सभी विधानसभा क्षेत्रों के लिए अलग-अलग घोषणापत्र तैयार करने का ऐलान किया है। साथ ही घोषणापत्र को तैयार करते समय संबंधित विधानसभा क्षेत्र के मतदाताओं से रायशुमारी करने और दिल्ली की तर्ज पर उत्तराखंड में भी विकास का नया मॉडल लागू करने की बात कही गई थी।
इस बाबत उत्तराखंड की सियासत पर गहरी नजर रखने वाले नामचीन पत्रकारों का कहना है कि दिल्ली और अन्य राज्यों समेत उत्तराखंड की सामाजिक, भौगोलिक और आर्थिक परिस्थितियों में धरती आसमान का अंतर है। यहां के सामाजिक परिवेश से अनजान अरविंद केजरीवाल की दाल गलनी बेहद मुश्किल है। केजरीवाल ने विश्वविख्यात सामाजिक कार्यकर्ता और समाजसेवी अन्ना हजारे के आंदोलन को भुनाते हुए आम आदमी पार्टी की स्थापना की थी। उस समय दिल्ली के लोगों को लगा था कि कुछ नया होगा। इसी के चलते राष्ट्रीय पार्टियों से ज्यादा दिल्ली में एक नई पार्टी को तरजीह दी थी, लेकिन दिल्ली के बाहर अन्य राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में केजरीवाल का सिक्का नहीं चल पाया और उनकी पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा। अब वह एक क्षेत्रीय पार्टी ही बनकर रह गई है।