- 1944 तक अंग्रेज ग्रीनार्ड का था मालिकाना हक
- चाय उत्पादन के लिए था प्रसिद्ध, लंदन भेजी जाती थी यहां की चाय
- 1945 में प्रेमनाथ सरीन ने अंग्रेज से खरीदी थी जमीन
- सरीन परिवार ने 33 साल यूपी और उत्तराखंड सरकार से लड़ा मुकदमा
- मुआवजा देने के बाद 697 हेक्टेयर वन भूमि सरकार के पास
- 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने दिया था वादी के हक में फैसला
- तालाब क्षेत्र की 21 हेक्टेयर भूमि पर अब भी राजीव सरीन का मालिकाना हक
ग्वालदम। उत्तराखंड की ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण के निकट पर्यटक स्थल बेनीताल को लेकर इन दिनों सोशल मीडिया पर कई तरह की भ्रांतिया फैली हैं। इन भ्रांतियों को दूर करने के लिए भाकपा माले के गढ़वाल सचिव इंद्रश मैखुरी और शहीद स्मृति बेनीताल के सचिव बीरेंद्र मिंगवाल ने फेसबुक पर परिचर्चा की। उसी परिचर्चा को आज हम अपने पाठकों तक पहुंचा रहे हैं। बेनीताल 718 हेक्टेयर भू-भाग में फैला है। इसके अधिकतर हिस्से पर पहले पेड़ थे। जिनको काटकर घास का मैदान बनाया गया। यह पहले बेनीताल स्टेट के नाम से जाना जाता था। इस भूमि पर 1944-45 तक एक अंग्रेज सीएच ग्रीनार्ड का मालिकाना हक था। 1945 में दिल्ली निवासी प्रेमनाथ सरीन इस भूमि को खरीद लिया। यानी उक्त भूमि पर प्रेमनाथ सरीन का मालिकाना हक हो गया। आजादी से पूर्व बेनीताल का देश की 48 टी-स्टेटों में गिना जाता था। बेनीताल टी-स्टेट चायपत्ती उत्पादन के लिए ब्रिटेन तक विशेष पहचान रखता था। अंग्रेजों ने क्षेत्र को चाय उत्पादन के लिए विकसित किया था। यहां से उत्पादित इको डस्ट और बदरीश टी उस समय पश्चिम बंगाल सहित देश के विभिन्न प्रांतों के अलावा कोलकाता से समुद्री रास्ते से ब्रिटेन भेजी जाती थी। यह तो रहा बेनीताल का इतिहास। अब बात करते हैं विवाद पर, देश आजाद होने के बाद तत्कालीन उत्तरप्रदेश सरकार ने दिसंबर 1977 में विनाश और भू सुधार अधिनियम लागू किया। अधिनियम के तहत यूपी सरकार भूमि को अतिग्रहण कर रही थी। सरीन परिवार को भूमि अधिक्रण करने से कोई एतराज नहीं था लेकिन वह उस भूमि का मुआवजा मांग रहे थे। सरकार का तर्क था कि यदि उसके खातेदार को इससे कोई आय नहीं प्राप्त होती है तो उसको मुआवजा नहीं दिया जाएगा। सरीन परिवार ने सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ वाद दायर किया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका सुनने से इनकार कर दिया। उन्हें पहले हाईकोर्ट में याचिका दायर करने को कहा। इसके बाद 1978 में सरीन परिवार ने कर्णप्रयाग असिस्टैंट कलेक्टर कोर्ट में वाद दायर किया। 1988 में असिस्टैंट कलेक्टर यानी एसडीएम ने मुकदमा खारिज कर दिया। 10 साल तक असिस्टैंट कलेक्टर कोर्ट में मुकदमा लड़ा गया। इसके बाद सरीन ने हाईकोर्ट इलाहाबाद में वाद दायर कर उत्तरप्रदेश सरकार के खिलाफ 1988 से लेकर 1997 तक मुकदमा लड़ा। 9 साल मुकदमा लड़ने के बाद वहां भी उनका मुकदमा खारिज हो गया। मुकदमा खारिज इसलिए हुआ कि जब खातेदार को जंगल से आय प्राप्त नहीं होती है तो उसको मुआवजा नहीं दिया जा सकता है। इसके बाद सरीन परिवार ने सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खटखटाए। 14 साल मुकदमा लड़ने के बाद सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बैंच ने सरीन परिवार के पक्ष में फैसला दिया। जिसमें कहा गया कि जो वन भूमि है, उसका सरकार वादी को मुआवजा दे और जितने साल से मुकदमा लड़ा जा रहा है। उसका 6 प्रतिशत मुआवजा दिया जाए। यह मुकदमा उत्तराखंड सरकार के खिलाफ लड़ा गया। तीन कोर्ट में 33 साल तक चले मुकदमे में सरकार ने मुआवजा देकर 697 हेक्टेयर वन भूमि अधिग्रहण कर ली है। अब यह बेनीताल स्टेट से ग्राम बेनीताल दर्ज किया है। अब भी 21 हेक्टेयर घास के मैदाऩ और तालाब वाली जमीन पर प्रेमनाथ के बेटे राजीव सरीन का मालिकाना हक है। खबर की तह में जाने के बाद पता चला है कि अवैध कब्जा जैसी कोई स्थिति नहीं है। राजीव सरीन ने भूमि की देखरेख के लिए एक केयर टेकर को भी रखा है। शहीद स्मृति बेनीताल के सचिव बीरेंद्र मिंगवाल ने बताया कि सरकारों से 2004 से बेनीताल को विकसित करने के लिए मांग की जा रही है। अगर सरकार प्रयास करें तो तालाब की जमीन को भी सरीन सरकार को दे सकते हैं। जिस तरह से सोशल मीडिया में भ्रांतियां फैली थी कि सरीन का स्टाफ वहां आने वाले लोगों को तंग करता है। बेनीताल मेला नहीं होने देता है। मिंगवाल ने बताया कि कोरोना के कारण मेले का आयोजन नहीं किया गया है। सरीन के स्टाफ की ओर से सहयोग किया जाता है। किसी प्रकार की रोक-टोक या किसी को परेशान नहीं किया जाता है। नाम लिए बगैर उन्होंने कहा कि जिन लोगों ने वहां से बोर्ड हटाया है। वह जानकारी के अभाव में ऐसा किया गया है। अब सरकार को राजीव सरीन से बात कर 21 हेक्टेयर भूमि का भी मुआवजा देकर अधिग्रहण करना चाहिए। ताकि बेनीताल को बेहतरीन पर्यटक स्थल के रूप में विकसित किया जा सके।