शोध रिपोर्ट का खुलासा…
- शिक्षा, आमदनी या रोजगार जैसे मुद्दे गत चुनावों के दौरान दिखे हाशिये पर
- वर्ष 2014 के चुनाव में बीजेपी को अगड़ी जातियों का मिला बड़ा वोट शेयर
- कांग्रेस और दूसरी मध्यमार्गी पार्टियों को ओबीसी-मुस्लिम के मिले ज्यादा वोट
हमारे देश में लोग भले ही किसी नेता या प्रत्याशी की योग्यता और कर्मठता का गुणगान करें, लेकिन जब चुनाव की बारी आती हैं तो चुनावों पर जाति और धर्म भारी पड़ जाते हैं तथा प्रत्याशी के गुण हाशिये पर रह जाते हैं। जिससे कई बार काबिल प्रत्याशी चुनाव में हार जाते हैं और अपराधी तक विधानसभा और लोकसभा में पहुंचकर जनता का भाग्य लिखते रहे हैं। हालांकि आखिर में इसका खमियाजा पूरे देश को उठाना पड़ता है। इसके बावजूद हमारे देश में आज भी चुनाव जाति और धर्म के आधार पर ही लड़े जाते हैं।
अक्सर चुनाव के दौरान जातीय पहचान और धार्मिक विवाद जैसे मुद्दों पर वोटों का बंटवारा होता रहा है। वर्ष 1962 से लेकर 2014 तक के लोकसभा चुनाव के आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि शिक्षा में असमानता, आमदनी या रोजगार जैसे मुद्दों का चुनाव के दौरान मामूली असर रहता है। देश के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी, पेरिस स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स के ऐमरी गेथिन और थॉमस पिकेटी के शोध में यह हकीकत निकलकर सामने आयी है। शोध के मुताबिक वोट देने के मूलभूत समस्याओं की कोई खास भूमिका नहीं होती है।
इस शोध के दौरान सर्वे और चुनाव परिणाम का अध्ययन किया गया। जिसके मुताबिक वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा और दूसरी दक्षिणपंथी पार्टियों को अगड़ी जातियों का बड़ा समर्थन मिला। ऐसी पार्टियों के पक्ष में 60 प्रतिशत ब्राह्मण और करीब 50 प्रतिशत अन्य अगड़ी जातियों ने वोट डाला। इसके मुकाबले अन्य पार्टियों को अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति के 30 प्रतिशत और मुस्लिमों के 10 प्रतिशत वोट मिले। कांग्रेस समेत दूसरी मध्यमार्गी पार्टियां ओबीसी और मुस्लिम समुदाय के ज्यादा वोट हासिल करने में कामयाब रहीं। दूसरी ओर वामपंथी पार्टियों ने एससी/एसटी और ओबीसी वोटरों के बीच मजबूत पकड़ सामने आई।
1962 के चुनाव की बात करें तो हिंदूवादी पार्टियों को 20 फीसद ब्राह्मण और 30 फीसद दूसरी अगड़ी जातियों का समर्थन मिला। वहीं, कांग्रेस और दूसरी मध्यमार्गी पार्टियों को इस चुनाव में 50 फीसद मुस्लिम और एससी/एसटी का समर्थन मिला। कांग्रेस समेत अन्य दलों को इस चुनाव में ब्राह्मणों का 50 प्रतिशत और अन्य अगड़ी जातियों का 40 प्रतिशत वोट मिले थे। इसके साथ ही उसे 40 फीसद ओबीसी का समर्थन मिला था। लेकिन 2014 का चुनाव आते-आते यह आंकड़ा घटता चला गया। इस चुनाव में कांग्रेस समेत दूसरी पार्टियों को ब्राह्मणों का 20 प्रतिशत से कम वोट हासिल हुआ। वहीं, दूसरी अगड़ी जातियों में भी उसे 20 से 30 फीसद के बीच वोट मिला। इसके उलट ओबीसी और एससी/एसटी के बीच ऐसी पार्टियों को 30 से 40 फीसद और मुस्लिमों का 40 प्रतिशत से ज्यादा समर्थन हासिल हुआ।
रिसर्च के मुताबिक 90 के मध्य के दशक तक दक्षिणपंथी पार्टियों को उच्च वर्ग, ज्यादा आय वाले, जातियों की सीमा से ऊपर उठे लोगों का समर्थन मिलता था लेकिन वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा, कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के बीच अपनी पसंद तय करने के लिए मतदाताओं पर सामाजिक वर्ग, आय और शिक्षा जैसे मूलभू2त मुद्दों का कोई खास असर नहीं देखा गया। यानी इस चुनाव के दौरान मध्य या निम्न वर्ग की तरह उच्च वर्ग ने भी दक्षिणपंथी पार्टियों को समर्थन दिया।
इस शोध में सामने आया कि विधानसभा चुनाव में भी सामाजिक वर्ग की बजाय जाति और धर्म ही वोटरों का मूड तय करने में दो बड़े फैक्टर रहे। जिन राज्यों में भाजपा बड़े घटक की भूमिका में थी, वहां उसे एससी/एसटी और मुस्लिम मतदाताओं के मुकाबले अगड़ी जाति का ज्यादा समर्थन मिला।