‘इस्तीफा पुराण’ चालू आहे

  • कोरोना से कुंभ को कलंकित नहीं करना चाहते थे त्रिवेंद्र
  • अब काबू से बाहर हुए हालात का जवाब न तो केंद्र सरकार से देते बन रहा है और न ही प्रदेश सरकार से
  • पूरी ताकत झोंकने पर भी सल्ट उपचुनाव में हार-जीत के मामूली अंतर से भाजपा के माथे पर खिंचीं चिंता की लकीरें

देहरादून। कुंभ के आयोजन और उस दौरान अप्रत्याशित रूप से बढ़े कोरोना के मामलों ने पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की दूरदृष्टि सच साबित हुई और अब पूरी दुनिया के मीडिया में पांच राज्यों में हुए चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित तमाम नेताओं की रैलियों में जुटी भीड़ के साथ ही हरिद्वार कुंभ में श्रद्धालुओं के जमावड़े को पूरे देश में कोरोना फैलाने के लिये जिम्मेदार बताया जा रहा है, ऐसे में काबू से बाहर हुए हालात का जवाब न तो मोदी सरकार से देते बन रहा है और न ही तीरथ सरकार से।
त्रिवेंद्र सिंह रावत को एकाएक सीएम पद से हटाने के पीछे लिखी गई ‘पटकथा’ की कई सारी बातें छन छनकर मीडिया में सामने आ रही हैं। जिनमें से रावत को पद से हटाने के पीछे एक बड़ा कारण उनकी कुंभ को ‘सीमित’ रूप से आयोजित करने का बताया जा रहा है जो भाजपा आलाकमान को विभिन्न कारणों से मंजूर नहीं था क्योंकि मोदी सरकार की योजना इस ऐतिहासिक पर्व को ‘भव्य’ रूप से मनाने की थी। जिसका नतीजा पूरी दुनिया के सामने है। कोरोना संक्रमण की सुनामी से बदले हालात ने त्रिवेंद्र सिंह रावत के कद को और ‘बड़ा’ साबित कर दिया है और  वक्त अपनी ‘पटकथा’ लिखने में मशगूल है।
वक्त की विडंबना देखिये कि जो लोग कभी थालियां बजा रहे थे, वे अब कोरोना संक्रमण के चलते अपनों की मौतें होने से छाती पीट रहे हैं। जो लोग दीये जला रहे थे, वे अपने प्रियजनों की चिता जलाने के लिये कतार में खड़े हैं और देशभर में पहली बार श्मशानों में भी टोकन प्रथा लागू की गई है। अस्पतालों में बेड नहीं हैं। बेड हैं तो ऑक्सीजन नहीं है। ऑक्सीजन की कमी से पूरे देश में सैकड़ों मरीजों की अस्पतालों में मौत हो चुकी है। राष्ट्रीय राजधानी में दिल्ली हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट लगातार करीब एक सप्ताह तक सुनवाई कर मोदी सरकार को ‘आईना’ दिखाते रहे। विभिन्न राज्यों के हाईकोर्टों ने तो मोदी सरकार से लेकर चुनाव आयोग तक को कठघरे में खड़ा किया है।
लौटकर वहीं आते हैं…
त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री पद से क्यों इस तरह आनन फानन में गैरसैंण सत्र के बीच में से हटाया गया, ये एक बड़ा सवाल है, लेकिन इसका जवाब स्पष्ट रूप से पार्टी नेता कभी नहीं दे पाए। अब ‘द कारवां’ पत्रिका के डिजिटल प्लेटफार्म पर प्रकाशित एक खबर में यह दावा किया गया है कि कुंभ को सीमित और ‘प्रतीकात्मक’ रखने की त्रिवेंद्र सिंह रावत की कोशिश उनके मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे की बड़ी वजह बनी। लेख में अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद और भाजपा नेताओं के साथ बातचीत के आधार पर ये संभावना जताई गई है। लेख के अनुसार चूंकि कुंभ के आयोजन को सीधे तौर पर केंद्र मॉनिटर करता है। केंद्र की ओर से कुंभ के आयोजन के लिए बड़ी धनराशि उपलब्ध कराई जाती है ऐसे में त्रिवेंद्र की कुंभ को ‘प्रतीकात्मक’ रखने की योजना केंद्र को नहीं पसंद आई। केंद्र चाहता था कि कुंभ का आयोजन ‘भव्य’ तरीके से हो।
लेख में दावा किया गया है कि त्रिवेंद्र के ‘प्रतीकात्मक’ कुंभ की अवधारणा को लेकर अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद, कई महंत, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा नेता नाराज थे। वो चाहते थे कि कुंभ का आयोजन न सिर्फ भव्य हो बल्कि कोविड के कम के कम प्रतिबंधों के साथ हो। ‘हिंदू हार्टलैंड’ कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों से ठीक पहले होने वाले कुंभ को सीमित करने का खतरा भी केंद्र नहीं लेना चाहता था। इससे हिंदुओं के नाराज होने का खतरा था।
लेख में ये भी बताया गया है कि कुंभ को सीमित रखने से आश्रमों को कुंभ के दौरान मिलने वाले दान में भी कमी आने की आशंका थी। चूंकि अखाड़ों के अनुयायियों की बड़ी संख्या उत्तर प्रदेश से आती है और अगर कुंभ में इन्हें आने की अनुमति न दी जाती तो इस नाराजगी का असर उत्तर प्रदेश के चुनावों में देखने को मिल सकता था। संतों को लगने लगा था। कि उत्तराखंड सरकार विधर्मी की तरह व्यवहार कर रही है और कुंभ मेले को टालने की कोशिश में लगी है। इसीलिए कोविड-19 का हवाला दिया जा रहा है ।
लेख में दावा किया गया है कि अखाड़ों और त्रिवेंद्र सिंह रावत के बीच चल रही रस्साकसी में अखाड़े भारी पड़े और त्रिवेंद्र को इस्तीफा देना पड़ा। मोदी सरकार अखाड़ों के संतों की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहती थी। हालांकि कुछ भाजपा नेताओं ने कहा है कि न सिर्फ कुंभ बल्कि कई और वजह भी थीं जो त्रिवेंद्र को पद से हटाए जाने की सबब बनी। भाजपा आलाकमान के पास इस बात की रिपोर्ट भी लगातार भेजी जा रही थी कि 2022 के विधानसभा के चुनावों में त्रिवेंद्र सिंह रावत के नेतृत्व में भाजपा का वापसी कन्फर्म नहीं लगती।
लेख में बताया गया है कि छह मार्च को भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रमन सिंह और उत्तराखंड के प्रभारी दुष्यंत सिंह गौतम देहरादून पहुंचे। उस समय मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र गैरसैंण में बजट सत्र में थे। दोनों नेताओं ने उनकों देहरादून तलब किया। रावत जब देहरादून पहुंचे तो चाय परोसे जाने के दौरान ही उन्हें दोनों नेताओं ने इस बात की सूचना दी कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा उनसे मिलना चाहते हैं। त्रिवेंद्र को इसी वक्त समझ आ गया था कि उनकी कुर्सी जाने वाली है। आधे घंटे की ये बैठक खत्म हो गई।
इसके अगले दिन शाम को त्रिवेंद्र सिंह रावत दिल्ली नड्डा के आवास पर उनसे मिलने पहुंचे। इस दौरान बीएल संतोष भी मौजूद थे। बीएल संतोष संघ और पार्टी के बीच कड़ी के तौर पर काम कर रहे हैं। इस बैठक से पहले नड्डा और अमित शाह की बैठक हो चुकी थी। त्रिवेंद्र से करीब आधे घंटे की बातचीत में नड्डा ने उनको स्पष्ट कर दिया भाजपा उनके नेतृत्व में 2022 का विधानसभा चुनाव लड़ने नहीं जा रही है। ये रावत को इस्तीफा देने का इशारा था। इसके बाद 9 मार्च को त्रिवेंद्र ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
हालांकि त्रिवेंद्र की ‘इस्तीफा पुराण’ का पटाक्षेप अभी नहीं हुआ है। सल्ट उपचुनाव में भले ही भाजपा ने जीत हासिल की हो, लेकिन हार जीत के मामूली अंतर ने उसके माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। जो एक संकेत है कि ‘मिशन 2022’ की डगर इतनी आसान नहीं है क्यूँकि इन सारे प्रकरणों से प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की उम्मीदें पंख फैलाने लग गयी है।

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