उत्तराखंड : यहां सियासत नहीं आसां, आग का दरिया है और डूब के जाना है!

देहरादून। इस नवगठित प्रदेश उत्तराखंड के राजनीतिक इतिहास पर एक नजर डाली जाये तो साफ दिखता है… ‘यहां सियासत नहीं आसां, आग का दरिया है और डूब के जाना है!’ न जाने कितने मुख्यमंत्री और मंत्री इस ‘आग का दरिया’ में कब और कहां ‘डूब’ गये, उन्हें खुद भी पता नहीं चल पाया। उनमें से कई आज तक अपना ‘वजूद’ तलाश रहे हैं।    
उत्तराखंड की पहली भाजपा की सरकार से लेकर वर्ष 2016 तक रहीं सरकारों की कार्यशैली में भले ही कितने विरोधाभास रहे हों, लेकिन एक बात इन सभी के कार्यकाल में ‘कॉमन’ रूप से देखने को मिली कि तब देहरादून और दिल्ली से लेकर देश के तमाम बड़ शहरों में उत्तराखंड के ‘एजेंट’ हुआ करते थे जो खुद को इस नवगठित पहाड़ी प्रदेश के ‘नीति नियंता’ और ‘कर्णधार’ होने के रूप में पेश करते थे।
उस जमाने में पांच सितारों होटलों की लॉबी में जाम छलकाते हुए कहीं न कहीं उत्तराखंड का ‘सौदा’ हो रहा होता था। कहीं जमीनों की डील, कहीं शराब और खनन की सेटिंग, कहीं बड़े ठेकों का गणित बैठाया जाता था। और तो और सत्ता के गलियारों में ब्रीफकेस वालों की धड़ल्ले से एंट्री होती थी। सरकारों पर माफिया हावी था और हर फैसले में उसका दखल भी था। शिक्षा की हो या शराब की हर क्षेत्र में माफिया केंद्र में था और असली ‘राज’ उन्हीं के हाथों में था। विडंबना यह रही कि इस पूरे कैनवास में आम जनता या उसके दुख दर्द कहीं हाशिये पर भी नहीं थे।  
शुरुआती दिनों की बात करें तो अधिकतर विधायक खुद को सीएम से कमतर नहीं आंकते थे और उन्हें गुमान था कि उनके बिना उत्तराखंड विकास की राह पर चल नहीं सकता। इसी उतावलेपन के चलते नारायण दत्त तिवारी के कार्यकाल को छोड़कर करीब करीब हर सरकार में सीएम इस तरह से बदले गये कि ‘तू चल मैं आया’… में ही पांच साल फुर्र होकर गुजर जाते रहे और उत्तराखंड की जनता सियासत की शतरंज में ‘मोहरों’ को आते जाते ही देखती रही और इसके साथ ही उसकी तमाम उम्मीदें दम तोड़ती रहीं।
मंत्री, विधायक, अफसर, हर कोई दोनो हाथों से लूट रहे थे। माफिया को राज्य में कौड़ियों के मोल जमीन देने का मसला हो या फिर पहाड़ पर शराब फैक्ट्रियां लगवाने का। सोलर प्लांटों के आवंटन का घपला हो या खनन के पट्टों और स्टोन क्रेसरों का खेल। उत्तर प्रदेश राजकीय निर्माण निगम के घोटाले हों या ऊर्जा में नियुक्तियों और बिजली खरीद का घपला। उस वक्त डीएम और कप्तान बनने की बोली लगने लगी थी। सत्ता के दरबार में मोटी थैलियां पेशगी देकर अहम पदों पर बैठे अफसर महज कलेक्शन एजेंट बने हुए थे। शिक्षा और स्वास्थ्य महकमा हो या फिर पीडब्लूडी जैसे इंजीनियरिंग महकमा हर जगह पोस्टिंग एक उद्योग बन चुका था। एक कड़वी हकीकत यह भी है कि हर बड़ा घपला-घोटाला पिछली सरकारों के कार्यकाल से जुड़ा है।
उस जमाने के उत्तराखंड के कई प्रख्यात पत्रकार और कई नामचीन हस्तियां इस बात की गवाह है कि उन्होंने कैसे आंदोलनकारियों के उत्तराखंड का ‘चीरहरण’ माफिया के हाथों होते देखा है। ऐसे चंद लोगों की कतार में त्रिवेंद्र सिंह रावत भी थे जो अपनी ‘बारी’ का इंतजार कर रहे थे। त्रिवेंद्र सरकार के राज को करीब साढ़े साल तीन बीत चुके हैं और करीब डेढ़ वर्ष बाकी है। त्रिवेंद्र शासन में सालों से चल रही तमाम पॉवर ब्रोकरों की दुकानों में ताले लग गये हैं। भ्रष्टाचार को लेकर जीरो टोलरेंस के त्रिवेंद्र सरकार के संकल्प ने माफिया और दलालों की परंपरागत दुकानें क्या बंद कीं, मानो उत्तराखंड की सियासत में भूचाल आ गया।  
त्रिवेंद्र सिंह मीडिया से लेकर नौकरशाहों और सत्ता के ‘मठाधीशों’ की आंखों की किरकिरी बन गये। इस तिगड़ी ने पूरे घोड़े खोल लिये कि किसी भी तरह उनको सीएम नहीं बने रहने देना है। इसके लिये ‘दिल्ली’ तक खूब दौड़ लगाई गई। उल्टे सीधे आरोप लगाये गये और हर तरह से नाकारा साबित करने की भी साजिश से यह तिगड़ी बाज नहीं आई। इसके बावजूद उन्हें बुरी तरह मुंह की खानी पड़ी क्योंकि त्रिवेंद्र ने एक बार कहा था…’मैं नहीं, मेरा काम बोलता है’ और उनके जमीनी कामों ने साबित कर दिखाया कि वो ‘लीक’ से हटकर हैं और किसी भी दबाव के आगे नहीं झुकेंगे। उनके लिये उत्तराखंड की जनता के हित और पहाड़ का विकास सर्वोच्च प्राथमिकता थे, हैं और रहेंगे।
त्रिवेंद्र को इस बात का श्रेय देने से कोई इनकार नहीं कर सकता कि उनके शासनकाल में दलालों और  माफिया की आज सत्ता के गलियारों में एंट्री नहीं है। और तो और सचिवालय का फोर्थ फ्लोर भी माफिया ‘मुक्त’ दिखता ही है। अब नीतियां माफिया के इशारे पर नहीं बनतीं। त्रिवेंद्र सरकार के कई फैसलों पर सवाल तो उठाए जा सकते हैं। और बहुत से मुद्दे भी हैं, लेकिन तीन साल में एक भी बड़े घोटाले का आरोप सरकार पर नहीं लग पाया है। त्रिवेंद्र की ईमानदारी की प्रशंसा उनके धुर विरोधी विपक्षी दल कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और वरिष्ठ नेता किशोर उपाध्याय सार्वजनिक रूप से कर चुके हैं। दूसरी ओर उनके चिर प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के पूर्व सीएम हरीश रावत ने कई मौकों पर खुले मंच पर यह बात कही है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत एक ईमानदार छवि के नेता हैं। यह मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के लिये बहुत बड़ी उपलब्धि है।
आज हालात काफी बदले हुए हैं। भ्रष्टाचार से खोखले होते जा रहे उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सरकार ने विकास कार्यों और स्वरोजगार को लेकर कई मील के पत्थर स्थापित किये हैं। पहले तो शिकायत की सुनवाई ही नहीं थी, आज सीएम हेल्पलाइन पर ही सही कम से कम आप अपनी शिकायत तो दर्ज कर सकते हैं। आमजन की शिकायतों का निवारण भी हुआ है। हालांकि कोरोना महामारी के चलते उनके कार्यकाल के बाकी के डेढ़ साल उनके लिए बड़ी चुनौती हैं और कई सारी ‘अग्निपरीक्षाओं’ से उन्हें गुजरना बाकी है।  

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