क्या मिथक तोड़ पायेंगे त्रिवेंद्र!

पांचों सीटों पर अग्नि परीक्षा

  • अन्य प्रांतों के निवासियों से कुछ अलग हटकर है उत्तराखंड के लोगों का मिजाज
  • जिस दल को विधानसभा चुनाव में जिताया, उसी को लोकसभा चुनाव में चटाई धूल
  • राजनीति के बड़े—बड़े धुरंधर भी आज तक नहीं भांप पाये उत्तराखंडियों के दिल की बात

देहरादून: लोकसभा—2019 के चुनावों की तारीखों की घोषणा होते ही नेताओं की धड़कने तेज हो गई हैं। खासतौर पर उत्तराखंड में तो भाजपा और कांग्रेस दोनों ही राष्ट्रीय दल काफी पहले से लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं। ये चुनाव जहां कांग्रेस के लिये अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई है तो वहीं भाजपा के लिये यह मिथक तोड़कर इतिहास बदलने की है कि प्रदेश में अभी तक विधानसभा चुनाव में जिस पार्टी को सत्ता सौंपी है, उसी जनता ने लोकसभा चुनाव में उसके प्रत्याशियों को धूल चटाई है। इस मिथक के चलते ये संसदीय चुनाव मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की अग्नि परीक्षा जैसे हैं और उन पर इतिहास बदलने का मनोवैज्ञानिक दबाव भी है।
हालांकि केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार होने के कारण त्रिवेंद्र सरकार ने उत्तराखंड में विकास के कई नये आयाम गढ़े हैं। जिनमें उत्तर प्रदेश के साथ संपत्ति बंटवारे के मामले सुलझने, आल वैदर रोड बनने, केदारनाथ का पुनर्निर्माण, ऋषिकेश—कर्णप्रयाग रेलवे लाइन के निर्माण में तेजी, डोईवाला में सीपैट, रानीपोखरी में नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी और देहरादून में देश की पांचवीं साइंस सिटी बनने जैसे कई बड़े कार्य त्रिवेंद्र सरकार की उपलब्धियों में शुमार हैं। खास बात यह है कि इस बार उत्तराखंड का युवा मतदाता किंग मेकर बनने की ताकत में दिख रहा है। इनकी संख्या करीब सवा 21 लाख है जो कुल वोटों का साढ़े 27 प्रतिशत है। युवा वर्ग की खास बात यह है कि वह पारंपरिक रूप से किसी नेता या पार्टी का पिछलग्गू नहीं, बल्कि वह अपने सुरक्षित भविष्य के प्रति बेहद जागरूक है और उसकी प्राथमिकता में नौकरी और रोजगार के बेहतर अवसर प्रदान करने वाली सरकार को समर्थन देने की है।
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में उत्तराखंड की पांचों सीटों पर कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया था और वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भी उसे शर्मनाक हार का सामना तो करना पड़ा, उसके कई दिग्गज नेता चुनाव से ऐनवक्त पहले पाला बदलकर भाजपा में शामिल होने से उसके पास कद्दावर नेताओं की कमी सी हो गई और इस समय भाजपा के पास लोकसभा चुनाव में उतारने के लिये नेताओं की फौज है तो कांग्रेस के पास सिर्फ गिने—चुने चेहरे ही हैं। इसके बावजूद कांग्रेस के पास सबसे बड़ी ताकत उसका बूथ लेवल पर कैडर है जो गांव—गांव और गली—गली में मौजूद है। यही वजह है कि भले ही गत विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सीटें कम आई हों, लेकिन उसका वोट प्रतिशत लगभग स्थिर ही रहा है जबकि मोदी लहर के जमाने से भाजपा को मत प्रतिशत ढलान की ओर है जो 2014 के लोकसभा चुनाव से लेकर 2017 के विधानसभा चुनाव तक गिरा है। हालांकि भाजपा की सबसे बड़ी ताकत उसका पार्टी संगठन का ढांचा है व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्पित कार्यकर्ता और उनका नेटवर्क इतिहास पलटने की क्षमता रखता है। प्रदेश में सपा और बसपा का जनाधार हरिद्वार और उधमसिंह नगर में ही रहा है और इन दोनों दलों ने कांग्रेस के ही वोट बैंक में सेंध लगाई है। यह और बात है कि राज्य बनने के बाद सपा यहां विधानसभा चुनावों में कभी खाता नहीं खोल पाई और बसपा विधानसभा चुनावों में आठ सीटें तक जीत चुकी है, लेकिन वह आज तक लोकसभा की एक भी सीट नहीं जीत पाई। दिलचस्प बात यह है कि उत्तराखंड के लोगों की उत्तराखंड क्रांति दल से सहानुभूति तो है और विधानसभा चुनावों में उक्रांद के तीन विधायक भी जीत चुके हैं लेकिन लोकसभा चुनावों में उसे शर्मनाक हार का सामना ही करना पड़ा है।
दूसरी ओर इस बार के लोकसभा चुनाव की विशेषता यह भी है कि इस बार के चुनाव कांग्रेस बनाम भाजपा न होकर मोदी बनाम राहुल बनने जा रहे हैं। हालांकि कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों की सरकार होने के अपने मायने हैं, लेकिन प्रियंका गांधी के राजनीति के मैदान में उतरने से कांग्रेस को संजीवनी मिलने की भी बात कही जा रही है। इसलिये ये चुनाव इस बार कई दिग्गजों के लिये उनके राजनीतिक सफर के नये मुकाम तय करने जा रहा है। भाजपा और कांग्रेस के दिग्गजों को इस हकीकत का अंदाजा भी हैं और वे अभी से पूरी रणनीति और ताकत लगाने के साथ ही अपनी तरफ से कोई कसर न छोड़ने में जुट गये हैं क्योंकि वक़्त बहुत कम है और उत्तराखंड में चुनाव पहले चरण में है।

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