श्री राजराजेश्वरी नंदा देवी की जात पर भी दिखी कोरोना की ‘छाया’

वेदनी बुग्याल (देवाल) से हरेंद्र बिष्ट।
कोरोना संक्रमण के चलते इस बार वेदनी में आयोजित होने वाली श्री राजराजेश्वरी नंदा देवी की जात (नंदा की विशेष पूजा) के दौरान भी साफ दिखाई पड़ी।देवी की पूजा से पहले अपने पूर्वजों को वेदनी कुंड़ में तर्पण करने वाले श्रद्धालु लगभग नदारद रहे। इसके अलावा कोरोना गाईड लाईन के पालन के तहत कम से कम यात्रियों के आमद के आहवान पर काफी कम संख्या में नंदा भक्त वेदनी बुग्याल तक पहुंचे।
प्रति वर्ष भादौ मास में आयोजित होने वाली नंदा लोक जात यात्रा पर भी कोरोना संक्रमण का साया साफ देखा गया। हालांकि इस संक्रमण के चलते तमाम प्रवासियों के अपने घर गांव लौट आने के कारण घाट विकास खंड के नंदाक क्षेत्र एवं पिंडर घाटी के बधाण क्षेत्र के यात्रा रूट एवं इसके आसपास के लगे गांवों में यात्रा को लेकर खासा उत्साह देखने को मिला। संक्रमण से बचाने के लिए विशेषज्ञों के द्वारा सुझाए गए तमाम सावधानियां का अधिकांश नंदा भक्त पालन करते भी दिखें। किंतु जैसे ही नंदा यात्रा यात्रा मार्ग के अंतिम आवादी वाले गांव वांण को पार करते हुए आगे बढ़ती गई वैसे ही पिछले सालों की तुलना में यात्रियों की संख्या में जबरदस्त गिरावट देखने को मिली।
हालांकि प्रशासन ने यात्रा में अधिकतम 10 लोगों को ही नंदा डोले के साथ जाने की अनुमति के साथ ही वेदनी में कम से कम लोगों के जाने की अनुमति एवं अपील की थी। बावजूद इस के आवादी क्षेत्रों में यात्रा को लेकर दिख रहे उत्साह को देख एक बार लग रहा था कि श्रद्धा के आगे अनुमति एवं अपील बौने साबित हो सकते हैं और भारी संख्या में भक्तों का रेला वेदनी पहुंच सकता हैं। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नही।  

जब आज मंगलवार को सप्तमी की जात के लिए नंदा डोला गैरोली पातल से प्रात: काल वेदनी बुग्याल पहुंचा तो कम ही श्रद्वालु यहां पर मौजूद रहे। नंदाजात से पहले वेदनी कुंड़ में पितरों को तर्पण करने की एक परंपरा है। माना जाता है कि सप्तमी के नंदा पर्व पर यहां किए गए तर्पण सीधे पितरों को मिलता हैं। लोक मान्यता है कि मां नंदा भगवती द्वारा होमकुंड़ यात्रा मार्ग जिसे कैलाश मार्ग भी कहा जाता है, के अंतिम आवादी गांव वांण के आगे रणकाधार नामक स्थान पर अंतिम असुर रणकासुर का वध करने और यहीं पर भगवान शिवजी द्वारा मक्खी की उत्पत्ति करने के बाद पुन: दैत्यों की उत्पत्ति नहीं हो पाई। कहा जाता है कि भगवान शिव ने ही दैत्य को अमरत्व के वरदान के तहत वरदान दिया था कि जब भी उसका वध किया जाएगा और इस दौरान जितने भी रक्त बूंद भूमि पर गिरेगी, उतने दैत्य और पैदा होते रहेंगे।
इस वरदान के कारण ही देवी भगवती जितने भी दैत्यों का वध कर रही थीं, उतने अधिक दैत्य पैदा होते जा रहे थे। किंतु रणकासुर का बध होते ही मक्खियों के रक्त बूंदों पर बैठ जाने के बाद दैत्यों की उत्पत्ति नहीं हो सकी। इसके बाद देवी भगवती ने रूट पर पड़ने वाली वैतरणी नदी में स्नान किया और घनघोर जंगल गैरोली पातल में विश्राम करने के बाद अगले दिन वेदनी की ओर प्रस्थान किया।
माना जाता है कि वेदनी में कुंड को साक्षी मानकर नंदा ने शिव के साथ विवाह करने के बाद कैलाश को प्रस्थान किया। एक अन्य मान्यता के अनुसार वेदनी बुग्याल में बैठ कर ही महर्षि वेद व्यास ने वेदों की रचना की थी। इन्ही मान्यताओं के चलते ही तर्पण को महत्व दिया जाता हैं। तर्पण के बाद नंदा की पूजा को काफी अधिक फलदाई माना जाता है। किंतु इस साल वेदनी कुंड में तर्पण देने वालों की संख्या काफी कम रही। जात के बाद उत्सव डोला अब छह माह के प्रवास के लिए सिद्धपीठ देवराड़ा के लिए लौट तो गई हैं। किंतु इस यात्रा में सम्मिलित यात्रियों को कोरोना संक्रमण के कारण तमाम खट्टी-मीठी यादें लंबे समय तक जरूर बनी रहेगी।

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