धर्म के लिए चार साहिबजादों ने दी थी अनमोल शहादत

  • सिखों के इतिहास का सुनहरा पन्ना है गुरु गोबिंद सिंह के चारों बेटों की बलिदान की गाथा

चंडीगढ़। सिख और हिंदू धर्म की रक्षा के लिए कुर्बानी देने वाले गुरु गोबिंद सिंह के चारों साहिबजादों की याद में 21 से 27 दिसंबर का सप्ताह बलिदानी सप्ताह के तौर पर मनाया जाता है। साहिबजादा अजीत सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतेह सिंह ने अपनी शहादत दे दी, लेकिन धर्म पर आंच नहीं आने दी।
सिखों के दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के छोटे साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह, बाबा फतेह सिंह और माता गुजरी जी की हिंदू धर्म की रक्षा के लिए दी गई कुर्बानी को नमन करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हर साल 26 दिसंबर को वीर बाल दिवस मनाने की घोषणा की है।
गुरु गोबिंद सिंह जी के चारों साहिबजादों की शहादत इतिहास का ऐसा सुनहरा पन्ना है, जिसका उदाहरण बिरला ही मिलता है। धर्म की रक्षा के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। इस कारण उन्हें सरबंस दानी भी कहा गया। उनके चारों बेटों की याद में सिख बलिदानी सप्ताह यानी शहीदी दिहाड़ा मनाते हैं। श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने कहा था कि देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने वाले अनगिनत वीर सपूतों को गुमनामी के अंधेरे में धकेल दिया गया। गुरु गोबिंद सिंह जी के चारों साहिबजादों की शहादत भी ऐसे ही ऐतिहासिक अन्याय की भेंट चढ़ गई।
खालसा पंथ की स्थापना के बाद मुगल शासकों और सरहिंद के सूबेदार वजीर खां के आक्रमण के बाद 20-21 दिसंबर 1704 को मुगल सेना से युद्ध करने के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने परिवार सहित श्री आनंदपुर साहिब का किला छोड़ा। सरसा नदी पर गुरु गोबिंद सिंह जी का परिवार जुदा हो गया। बड़े साहिबजादे अजीत सिंह, जुझार सिंह गुरु जी के साथ रह गए, जबकि छोटे बेटे जोरावर सिंह और फतेह सिंह माता गुजरी जी के साथ थे। रास्ते में माता गुजरी जी को एक पुराना सेवक गंगू मिला, जो किसी समय पर गुरु महल की सेवा करता था। गंगू उन्हें बिछड़े परिवार से मिलाने का भरोसा देकर अपने घर ले गया।
इसके बाद लालच में आकर गंगू ने वजीर खां को उनकी खबर दे दी। वजीर खां के सैनिक माता गुजरी और 7 वर्ष के साहिबजादा जोरावर सिंह और 5 वर्ष के साहिबजादा फतेह सिंह को गिरफ्तार करके ले आए। उन्हें ठंडे बुर्ज में रखा गया। सुबह दोनों साहिबजादों को वजीर खां के सामने पेश किया गया, जहाँ उन्हें इस्लाम धर्म कबूल करने को कहा गया। लेकिन गुरु जी के जिगर के टुकड़ों ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। मुलाजिमों ने सिर झुकाने के लिए कहा तो दोनों ने जवाब दिया कि ‘हम अकाल पुरख और अपने गुरु पिता के अलावा किसी के भी सामने सिर नहीं झुकाते। ऐसा करके हम अपने दादा की कुर्बानी को बर्बाद नहीं होने देंगे, यदि हमने किसी के सामने सिर झुकाया तो हम अपने दादा को क्या जवाब देंगे, जिन्होंने धर्म के नाम पर सिर कलम करवाना सही समझा, लेकिन झुकना नहीं’।  
वजीर खां ने दोनों को काफी डराया, धमकाया और प्यार से भी इस्लाम कबूल करने के लिए राजी करना चाहा, लेकिन दोनों अटल रहे। आखिर में दोनों साहिबजादों को जिंदा दीवारों में चुनवाने का ऐलान किया गया। कहते हैं दोनों साहिबजादों को जब दीवार में चुनना आरंभ किया गया तब उन्होंने ‘जपुजी साहिब’ का पाठ शुरू कर दिया और दीवार पूरी होने के बाद अंदर से जयकारा लगाने की आवाज आई। दूसरी ओर साहिबजादों की शहादत की खबर सुनकर माता गुजरी जी ने वहीं प्राण त्याग दिए। यह वाकया 27 दिसंबर 1704 को हुआ। इसकी खबर गुरुजी तक पहुंची तो उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा (विजय की चिट्ठी) लिखा, जिसमें उन्होंने औरंगजेब को चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है।  
अजीत सिंह श्री गुरु गोबिंद सिंह के सबसे बड़े पुत्र थे।  गुरु जी द्वारा नियुक्त किए गए पांच प्यारों ने अजीत सिंह को समझाने की कोशिश की कि वह चमकौर के युद्ध में ना जाएं। लेकिन पुत्र की वीरता को देखते हुए गुरु जी ने अजीत सिंह को स्वयं अपने हाथों से शस्त्र भेंट कर लड़ने भेजा। इतिहासकार बताते हैं कि रणभूमि में जाते ही अजीत सिंह ने मुगल फौज को कांपने पर मजबूर कर दिया। मुगल फौज पीछे भाग रही थी लेकिन जब अजीत सिंह के तीर खत्म होने लगे तो दुश्मनों ने उन्हें घेर लिया। तब अजीत सिंह ने तलवार निकाली और अकेले ही मुगल फौज पर टूट पड़े। उन्होंने एक-एक करके कई मुगल सैनिकों का संहार किया, लेकिन तभी लड़ते-लड़ते उनकी तलवार भी टूट गई। महज 17 वर्ष की आयु में आखिरी सांस तक मुगलों से लड़ते हुए उन्होंने रणभूमि में शहादत दे दी। इनके नाम पर ही मोहाली का नाम साहिबजादा अजीत सिंह नगर रखा गया है।
अजीत सिंह की शहादत के बाद साहिबजादा जुझार सिंह ने मोर्चा संभाला। वह भी उनके पदचिन्हों पर चलकर अतुलनीय वीरता का प्रदर्शन करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। गुरुजी के साहिबजादों की शहादत का बदला बाबा बंदा सिंह बहादुर ने लिया। उन्होंने सरहिंद में वजीर खान को उनके कर्मों की सजा दी और पूरे इलाके पर सिखों का आधिपत्य स्थापित किया। इसी बलिदान का परिणाम था कि आगे चल कर महाराजा रणजीत सिंह के नेतृत्व में एक बड़े सिख साम्राज्य का उदय हुआ।
अकाल तख्त साहिब के पूर्व जत्थेदार रणजीत सिंह का कहना है कि मोदी का यह कदम सराहनीय है। इससे सिख इतिहास को मजबूती मिलेगी और आने वाली तमाम पीढ़ियां दसवें गुरु गोबिंद सिंह जी के परिवार की शहादत को याद रखेंगी। उन्होंने परिवार की शहादत कर गुलामी से आजाद करवाया था। चारों साहिबजादों की शहादत की कोई दूसरी मिसाल इस धरती पर नहीं मिलती है।

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