पहाड़ के ‘पहाड़’ से मसले गायब!

चुनावी सियासत चरम पर

  • लोकसभा चुनाव में प्रचार के दौरान केवल एक—दूसरे पर आरोप—प्रत्यारोप लगाने में जुटे सभी प्रत्याशी
  • उत्तराखंड के ज्वलंत और बुनियादी मुद्दों को राष्ट्रीय दलों ने भी हाशिये पर डाला 

इस बार लोकसभा चुनाव में प्रचार के दौरान उम्मीदवारों ने जिस तरह के आरोप—प्रत्यारोप का अंतहीन सिलसिला शुरू किया है, उससे उत्तराखंड के उन बुनियादी मुद्दों को हाशिये पर रख दिया गया है जिनके समाधान के लिये अलग राज्य की स्थापना का सपना देखा गया था। खासतौर पर राष्ट्रीय दलों ने राज्य बनने के दो दशक में ही उनको भुला दिया है। इन दलों के राष्ट्रीय स्तर पर बनने वाले चुनाव घोषणापत्रों में राज्य के मुद्दों को सुलझाने की उम्मीद करना बेमानी होगी। फिलहाल स्थानीय नेताओं की जुबान पर भी राज्य के मुद्दे नजर नहीं आ रहे हैं। 

प्रचार अभियान में जुटे सभी प्रत्याशी लोगों के बीच जाकर पलायन, बेरोजगारी, पहाड़ में चकबंदी, जंगली जानवरों से सुरक्षा, पहाड़ पर उद्योग व विकास योजनाओं आदि की बात नहीं कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में स्थानीय लोग खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं। हालांकि देवभूमि का चरित्र हमेशा राष्ट्रीय रहा है। हजारों सालों से ही यहां के युवा फौज में भर्ती होकर अपनी बहादुरी का लोहा मनवाते रहे हैं। आजादी के बाद भी पहाड़ पर भौगोलिक दुर्गमताओं के कारण विकास के पहिये नहीं चढ़ पाए। 

ऐसे में 1979 में अस्तित्व में आये उत्तराखंड क्रांति दल से लोगों को उम्मीद बंधी थी कि शायद यह पार्टी पहाड़ के मसलों को सुलझा सकेगी, लेकिन नाक के सवाल को लेकर उक्रांद में जितनी टूट—फूट और धड़ेबाजी सामने आई उससे पहाड़ के लोगों का मोह भंग हो गया और क्षेत्रीय पार्टियां जनता के दिलों की धड़कन नहीं बन पाई। शुरू में यहां कांग्रेस और जनसंघ के बीच चुनावी मुकाबले होते रहे। 
यूपी के दौर में मैदान-पहाड़ में विकास के मानक एक जैसे होने के कारण से अलग राज्य की मांग की जाने लगी। राज्य बना तो लखनऊ के बजाय देहरादून से विकास के मॉडल तय होने लगे। इसके बावजूद राज्य के विधानसभा चुनाव में राज्य की अवधारणा से जुड़े विषय बड़े दलों भाजपा-कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र में कहने भर को ही स्थान पाते हैं। लोकसभा चुनाव में स्थानीय नेता भी राष्ट्रीय मुद्दों को ही तरजीह देते दिखाई देते हैं। 

भाजपा प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर चुनाव लड़ रही है तो कांग्रेस राहुल के नाम पर। सबका सारा ध्यान सिर्फ और सिर्फ चुनाव जीतने पर है, न कि लोगों की समस्याओं को सुलझाने के लिये किसी ठोस योजना का खाका खींचने पर। ऐसे में राज्य आंदोलनकारियों के मन में टीस है कि शराबबंदी, पलायन, महिलाओं की समस्याएं, गैरसैंण राजधानी व जमीनों की खरीद-फरोख्त पर प्रतिबंध लागू करने, पहाड़ों पर उद्योग धंधे स्थापित कर रोजगार के अवसर पैदा करने, पलायन रोकने जैसे बुनियादी सवाल दोनों दलों के घोषणा पत्रों से गायब हैं।

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