नेहरू से मोदी तक दोस्ती तो खूब दिखाई, लेकिन ‘हिंदी-चीनी, भाई-भाई’ नारा बना रहा नासूर!

70 साल के रिश्तों का एलबम

  • मोदी अब तक 9 बार चीन गये, इसमें 4 बार गुजरात के सीएम रहते हुए और पांच बार पीएम के तौर पर
  • चीन ने पड़ोसियों से रिश्ते में जमीन हड़पने की नीति अपनाई, पाकिस्तान को छोड़ चीन का कोई दोस्त नहीं

नई दिल्ली। 15 जून की दुखद घटना के 48 घंटों के बाद अब फिर से इतिहास के पन्ने पलटे जा रहे हैं, और देखा-समझा जा रहा है कि क्या वाकई, अपने सामान की तरह चीन ‘यूज एंड थ्रो’ वाले सस्ते रिश्तों में यकीन रखता है? 20 जवानों की शहादत के बाद भारत और चीन के रिश्ते गलवान घाटी के ऐसे संकरे दर्रे में फंस गए हैं जहां से भरोसे वाले पांव जमाकर साथ निकलना अब संभव नहीं।
बाकी दुनिया के लिए चीन हमेशा से एक पहेली बना हुआ है। नेहरू से लेकर मोदी तक भारत भी अपने बड़े भाई जैसे लगने वाले पड़ोसी देश को समझ नहीं पाया। इसकी वजह चीन की कम्युनिस्ट सरकार की कथनी और करनी में बहुत अंतर है, जिसके सबूत उसके नेता बीते 70 साल में हर मौके पर भारत को धोखा देकर देते रहे हैं।
मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले 67 साल में सिर्फ पांच प्रधानमंत्रियों ने चीन का दौरा किया था। इनमें पंडित नेहरू, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह शामिल हैं। इसी पड़ताल में तलाशी गईं कुछ पुरानी तस्वीरें और उनकी कहानी, जो यही बात दोहराती है कि चीनी ड्रैगन दिखाता तो शांति और मित्रका का ठंडा पानी है, लेकिन आखिर में उगलता आग ही है।
तस्वीरों की ये कहानी मोदी से नेहरू तक चलेगी और उसमें सबसे ऊपर वह तस्वीर जिसके लिए खुद मोदी निशाने पर हैं, जो पीएम रहते चीनी राष्ट्रपति से कुल 18 मुलाकातों में रिश्ते सुधारने की भरसक कोशिश कर चुके हैं।

साल 2014- झूला तो झूले जिनपिंग, पर सिर्फ दिखावे के लिए : मई 2014 में गुजरात के नरेंद्र भाई देश के मोदी हो गए। शपथ समारोह में ही सभी पड़ोसियों को बुलाकर यह समझाया कि भारत आपके लिए कितना जरूरी है। मौके की नजाकत और बाजार देख चार महीने बाद सितंबर 2014 में चीनी राष्ट्रपति भी दौड़े आए। होमवर्क के माहिर मोदी ने बहुत संजीदगी से मेजबानी निभाई, जिसका गवाह अहमदाबाद में साबरमती का किनारा बना। जिनपिंग ने गांधी आश्रम में चरखा चलाया और बाद में मोदी के साथ पक्की दोस्ती दिखाते हुए हिंडोले में झूले। 12 समझौते किए और 20 अरब डॉलर निवेश का वादा भी किया और आगे के 5 साल ऐसा बहुत कुछ हुआ भी, लेकिन डोकलाम में इस दोस्ती की परीक्षा हुई और नतीजा गलवान में आया।

साल- 2019 ऐतिहासिक जगह मिले, पर इतिहास नहीं बदला : साबरमती नदी के तट से शुरू हुए भारत-चीन के रिश्ते 5 साल में बंगाल की खाड़ी तक पहुंच गए। मई 2019 में देश की दोबारा बागडोर संभालने के बाद पीएम मोदी और शी जिनपिंग की अक्टूबर में महाबलीपुरम में अनौपचारिक मुलाकात हुई थी। चीन की सत्ता में 7 साल से जमे जिनपिंग की मोदी से यह तीसरी मुलाकात थी। समुद्र किनारे ऐतिहासिक नगर की पृष्ठभूमि में दोनों नेताओं ने नारियल पानी पिया, बच्चों से मिले और करीब 6 घंटे तक बातचीत भी की। गलवान से 7 महीने पहले जिनपिंग का ये दौरा भारत और चीन के रिश्तों की आखिरी सुखद याद कहा जाएगा।

साल 2015 – टेराकोटा की मूर्तियों में रिश्तों की तलाश : पीएम मोदी अपने पहले कार्यकाल में सबसे पहले भूटान गए थे और फिर नेपाल। चीन से रिश्ते साधने में उन्होंने धीरज और चतुराई दिखाई। चीनी राष्ट्रपति के भारत दौरे के 8 महीने बाद मोदी बतौर पीएम चीन गए। राष्ट्रपति जिनपिंग भी मोदी के मेजबानी मॉडल पर चले और एहसान उतारने मित्र को भव्य स्वागत के साथ होमटॉउन शियान ले गए। हर मौके को तस्वीर बना देने में माहिर मोदी की चीन के टेराकोटा वॉरियर्स संग्रहालय की ये तस्वीर खूब वायरल हुई। इसमें मोदी चीनी सैनिकों की मूर्तियों को निहार रहे थे, उन्हें छूकर ऐसे देख रहे थे, मानो उनसे बाते करना चाहते हों। इसके बाद उनकी चीनी नेताओं से खूब मुलाकातें हुईं, दोस्ती की नई इबारतें और मूर्तियां लगाने के वादे हुए।

अप्रैल 2018 – रिश्तों के सुर साधते मोदी-जिनपिंग: 27 अप्रैल 2018 की ये तस्वीर पीएम मोदी की चौथी चीन यात्रा की है और जगह है कोरोनावायरस वाले वुहान शहर का हुबेई म्यूजियम। ये यात्रा इसलिए ऐतिहासिक रही कि मोदी के स्वागत में गर्मजोशी दिखाने के लिए जिनपिंग ने पहली बार देश का प्रोटोकॉल तोड़ दिया। मोदी के लिहाज से भी यात्रा ने रिकॉर्ड बनाए क्योंकि हमारे पीएम सबसे ज्यादा चौथी बार चीन का दौरा करने वाले पहले नेता बन गए थे। इस मौके पर दौरान मोदी ने चीन के सामने 21वीं सदी के पंचशील की नई व्याख्या पेश की थी।

वर्ष 1953 का नेहरू का पंचशील सिद्धांत : नेहरू ने 1953-54 में चीन के साथ रिश्ते सुधारने का जो पंचशील सिद्धांत दिया था उसके मुताबिक : 1. एक दूसरे की अखंडता और संप्रभुता का सम्मान 2. परस्पर आक्रामकता से बचना 3. एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना 4. समान और परस्पर लाभकारी संबंध, 5. शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व बनाए रखना।                              
2018 का मोदी का पंचशील सिद्धांत – “अगर हम समान विजन, मजबूत रिश्ते, साझा संकल्प, बेहतर संवाद और समान सोच के पांच सिद्धांतों वाले पंचशील के इस रास्ते पर चलें तो इससे विश्वशांति, स्थिरता और समृद्धि आयेगी।

जून 2018 : तस्वीरों में दोस्ती के रंग- 9 जून को बीजिंग में शंघाई समिट में भाग लेने के लिए पीएम मोदी फिर से चीन पहुंचे। इससे मात्र 42 दिनों में चीन के दो दौरे करने का नया रिकॉर्ड भी बन गया। दुनिया में मोदी-शी के दोस्ती के चर्चे और बढ़ने लगे। चीन को ट्रेड वॉर में घेरने में लगे ट्रम्प भी इस दोस्ती से घबराए। मोदी का ये पांचवां और गलवान से पहले का आखिरी चीन दौरा था, जिसमें उन्होंने अपने मित्र काे थोड़ा नाराज भी कर दिया क्योंकि भारत ने चीन के 80 देशों के समर्थन वाले बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) प्रोजेक्ट को समर्थन देने इससे इनकार कर दिया था। हालांकि इस दौरे में जिनपिंग ने नवंबर 2019 में दूसरी भारत यात्रा का निमंत्रण स्वीकार कर लिया था।

नवंबर 2019 – नए रिश्तों की आखिरी तस्वीर: 13 नवंबर 2019 की ब्राजील की राजधानी की ये तस्वीर इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी समय चीन में कोरोना दस्तक दे रहा था। मोदी ब्राजील में 11वें ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में भाग लेने गए थे और इस दौरान शी जिनपिंग से अपनी 18वीं मुलाकात भी कर आए। इस मुलाकात के बाद दोनों नेताओं के बीच सिर्फ फोन पर बात हुई है। कोरोना के कारण दुनिया का भारी दबाव झेल रहा चीन इतनी जल्दी भारत के साथ आधी सदी पुराना सीमा विवाद सुलगाने में लग जाएगा, ये शायद ही किसी ने सोचा था।

जनवरी, 2008 – मनमोहन की पहली यात्रा : यूपीए-1 में पीएम मनमोहन सिंह ने चीन की अपनी पहली अधिकारिक द्विपक्षीय यात्रा 13 से 15 जनवरी के दौरान की। इस दौरान दोनों देशों ने 21वीं सदी के लिए साझा दृष्टिकोण पर संयुक्त दस्तावेज जारी किया। इसके बाद 26-31 मई, 2010 को भारत की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने चीन का दौरा किया। 15-17 दिसंबर, 2010 को चीनी प्रधानमंत्री बेन जियाबाओ भी भारत आए। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच छह समझौतों पर हस्ताक्षर हुए। 2015 तक कारोबार को 100 अरब डॉलर का लक्ष्य निर्धारित किया गया। ये तमाम यात्राएं भारत और चीन संबंधों में ज्यादा गर्मी नहीं ला पाईं, क्योंकि उस दौर में दोनों ओर से राजनीतिक इच्छाशक्ति कमजोर थी।

1998 से 2005 के बीच का दौर :  मई 1998 में पहली अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा पोखरण में परमाणु विस्फोट किया गया। भारत को परमाणु ताकत का दर्जा देने वाली यह घटना पड़ोसी को अच्छी नहीं लगी। उसकी तीखी प्रतिक्रिया ने दोनों देशों के बीच संबंधों को झुलसा दिया। जून, 1999 में तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने चीन दौरा किया। इस दौरे में दोनों पक्षों ने एक दूसरे को धमकी न देने के वचन को दोहराया। मई-जून 2010 में तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन की यात्रा से दोनों के बीच उच्च स्तरीय आदान-प्रदान की वापसी हुई। जनवरी 2002 में चीनी प्रधानमंत्री झू रोंगजी भी भारत आए और फिर से संबंधों को नई हवा मिलने लगी।

साल 2003 – गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री की पहली चीन यात्रा : 2003 में पहली एनडीए सरकार में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पहली चीन यात्रा के दौरान दोनों के बीच द्विपक्षीय संबंधों को बढ़ाने के एक विजन डॉक्यूमेंट पर हस्ताक्षर किए गए। सीमा विवाद को सुलझाने के लिए विशेष प्रतिनिधियों की नियुक्ति हुई। अप्रैल 2005 में चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ की यात्रा के दौरान दोनों देशों के संयुक्त घोषणापत्र पर हस्ताक्षर हुए। नवंबर, 2006 में चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ की भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच कई क्षेत्रों में सहमति का संयुक्त घोषणापत्र जारी किया गया।

1991 से 1996 का दौर- राष्ट्र प्रमुखों की आवाजाही शुरू हुई : यह आर्थिक उदारीकरण की आहट का दौर था। दुनिया के बाजार खुल रहे थे और चीन इसके हिसाब से अपनी नीतियां बदल रहा था।दिसंबर 1991 में चीन के प्रधानमंत्री ली पेंग ने भारत दौरा किया। इसके बादमई,1992 में तत्कालीन राष्ट्रपति आर वेंकटरमण चीन की राजकीय यात्रा पर गए थे। राष्ट्राध्यक्ष स्तर पर दोनों देशों के बीच यह पहली यात्रा थी। इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने चीन का अपना पहला दौरा किया। उनकी इस यात्रा के दौरान भारत-चीन सीमा क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर शांति एवं अमन चैन बनाए रखने पर महत्वपूर्ण करार पर हस्ताक्षर किए गए थे। नवंबर, 1996 में चीनी राष्ट्रपति जियांग जेमिन ने भारत का राजकीय दौरा किया। यह चीन के राष्ट्राध्यक्ष की पहली भारत यात्रा थी।

1976 से 1981 का दौर – भारत ने 1962 के जख्म भुला कर नई शुरुआत की : अक्साई चिन-गलवान घाटी को लेकर लड़े गए 1962 के युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच खत्म हो चुके राजनयिक संबंध अगस्त, 1976 में बहाल हुए। इसका आगाज तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की फरवरी 1979 के चीन दौरे से हुआ। इस दौरे के बाद 1981 में चीनी विदेश मंत्री ज्जांग हुआ ने भारत की यात्रा की। 19 साल बाद फिर से भारत-चीन करीब आने लगे। भारत में ये आपातकाल की राजनीतिक उथल-पुथल के बाद का इंदिरा युग था, लेकिन इंदिरा गांधी ने कभी चीन पर वैसा भरोसा नहीं किया जो उनके पिता नेहरू ने किया था। इंदिरा कभी चीन यात्रा पर नहीं गईं।

1984 के बाद का दौर :  अपनी मां इंदिरा की निर्मम हत्या के बाद एक्सीडेंटली राजनीति में आकर सीधे पीएम बनने वाले राजीव गांधी ने बोल्ड स्टेप उठाकर चीन को साधने की कोशिश की। उनके सलाहकारों ने समझाया कि आपको अपने नाना के पंचशील को आगे बढ़ाना चाहिए। दिसंबर 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी चीन गए। 1962 युद्ध के 26 साल बाद रिश्तों में आई खटास दूर करने के लिए राजीव बीजिंग पहुंचे थे। इस दौरे से दोनों पक्षों के बीच सभी क्षेत्रों में द्विपक्षीय संबंधों के विस्तार एवं विकास पर सहमति बनी थी। चीन ने राजीव के रूप में भारत में नई लीडरशिप को उभरते देखा और रिश्ते फिर हरे होने लगे।

1949-50 का दौर – भारत से दो साल छोटा है चीन : रिपब्लिक ऑफ चाइना के रूप में एक अक्टूबर 1949 को चीन ने एक नई पहचान ओढ़ ली और इसे मान्यता देने वाला भारत पहला गैर कम्युनिस्ट देश था। एक अप्रैल 1950 में दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंधों स्थापित हो गए थे। जून 1954 में चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई जहां भारत दौरे पर आए वहीं, इसके बाद नेहरू अक्टूबर 1954 में पूरे 8 दिन के लिए चीन गए और दोनों के बीच पंचशील समझौते की नींव पड़ी। हालांकि सिर्फ 5 साल में ही पंचशील का दम फूलने लगा क्योंकि चीनी नेता एलएसी न होने का फायदा उठाकर विस्तारवादी नीति पर चल रहे थे। तस्वीर अक्टूबर 1954 में पंडित नेहरू के पहले चीन दौरे की है जब बीजिंग में उनका भव्य स्वागत हुआ।

1953 से 1962 का दौर – पंडित नेहरू से हुई पहले धोखे की शुरुआत : 23 अक्टूबर 1954 ये ऐतिहासिक तस्वीर पहले प्रधानमंत्री नेहरू के पहले चीन दौरे की है जिसमें वे चीन से सबसे शक्तिशाली नेता माओत्से के साथ बिना अपनी खास टोपी के टोस्ट करते हुए नजर आ रहे हैं। इस तस्वीर के जाने कितने मतलब निकाले गए हैं और लगभग हर मतलब में उन्हें कमजोर बताया गया है। 1959 आते-आते चीन ने नेहरू के हिंदी-चीनी, भाई-भाई के नारे को किनारे करते हुए करीब 50 हजार वर्गमील जमीन हड़पने की योजना बनाई। तिब्बत, कैलाश मानसराेवर और अक्साई चिन के साथ गलवान घाटी पर कब्जा इसी समय की बात है। इसी पहले और बड़े धोखे का नतीजा था 1962 का युद्ध, जिसके बाद करीब 38 हजार वर्गमील भारतीय जमीन आज भी चीन के कब्जे में है और चीन लगातार भारत के अन्य हिस्सों को अपना बताकर विस्तारवादी नीति पर काम कर रहा है। ताजा मामला गालवन का है।

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