उत्तराखंड : ‘पनीर विलेज’ जहां से पलायन सबसे कम!

मसूरी। उत्तराखंड राज्य बने 21 साल हो गए हैं, यहां के पहाड़ी इलाकों में बसे गांवों में रोजगार एवं अन्य सुविधाओं के अभाव के चलते लोगों का पलायन एक बड़ी समस्या बनकर सामने आया है। राज्य में कई ऐसे गांव हैं जहां से लोग पलायन करके शहरों में जा बसे हैं और फिर वापस कभी लौट कर नहीं आए। उत्तराखंड में कई गांव के गांव खाली और खण्डहर हो चुके हैं। लेकिन इसी उत्तराखंड में एक गांव ऐसा भी है जहां से आज के समय में बहुत ही कम व्यक्ति पलायन करके गए हैं। यह किसी भी सामान्य गांव की तरह ही है, लेकिन इस गांव को खास बनाता है यहां बनने वाला पनीऱ। अब पलायन और पनीर का जिक्र एक साथ होना, इसे समझना थोड़ा मुश्किल जरूर है लेकिन इस गांव में यह दोंनो चीजे एक दूसरे से ताल्लुक रखती है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि पनीर की वजह से ही यह गांव आज तक खाली और खंडहर बनने से बचा हुआ है। और पनीर के कारण ही इस गांव को कहा जाता है उत्तराखंड का पनीर विलेज।

पनीर विलेज…
मसूरी से करीब 20 किलोमीटर दूर टिहरी जिले के जौनपुर विकास खंड स्थित रौतू की बेली गाँव उत्तराखंड में पनीर विलेज के नाम से मशहूर है। करीब 1500 लोगों की आबादी वाले इस गाँव में 250 परिवार रहते हैं और गाँव के सभी परिवार पनीर बनाकर बेचने का काम करते हैं। रौतू की बेली गांव के पूर्व ब्लॉक प्रमुख कुंवर सिंह पंवार ने ही इस गांव में सबसे पहले पनीर बनाने का काम 1980 में शुरू किया था। इससे पहले यहां के लोग दूध बेचा करते थे। पहले गाँव में कोई रोजगार नहीं था, और पशुपालन यहां पर हमेशा से ही होता था, लेकिन दूध में कोई मुनाफा नहीं होने पर 1980 में यहां पर पनीर का काम शुरू हुआ। और तब से अब तक पनीर उत्पादन यहां के लोगों का मुख्य रोजगार बन गया है। ग्रामीणों का कहना है कि 1980 में यहाँ पनीर पाँच रुपये प्रति किलो बिकता था। उस समय पनीर यहाँ से मसूरी स्थित कुछ बड़े स्कूलों में भेजा जाता था। जिसके बाद इस इलाके में गाड़ियां चलनी शुरू हुईं तो यहाँ से बसों और जीपों में रखकर भी पनीर मसूरी भेजा जाता था।

यहाँ आसपास के इलाकों में तब पनीर नहीं बिकता था क्योंकि लोग पनीर के बारे में इतना जानते नहीं थे। यहाँ के लोग ये भी नहीं जानते थे कि पनीर की सब्जी क्या होती है। वहीं 2003 में उत्तरकाशी जाने वाली रोड के बन जाने की वजह से यहां का पनीर और मशहूर हो गया। इस गाँव से होकर देहरादून और उत्तरकाशी आने-जाने वाले लोगों की संख्या बढ़ी तो इस रोड से आने-जाने वाले लोग अक्सर यहीं से आकर पनीर खरीदने लगे यहाँ लोगों का पनीर अलग अलग गाँव में बिकने लगा। रौतू की बेली गाँव के पनीर में मिलावट न होने और सस्ता होने की वजह से देहरादून तक के लोग इसको खरीदने लगे।

गांव में सबसे कम पलायन…
ग्रामीणों के मुताबिक उत्तराखंड के बाकी इलाकों की तुलना में टिहरी जिले में यह पहला गांव है जहां सबसे कम पलायन है। कुछ 40-50 युवा ही गांव से बाहर पलायन करके काम करने के लिए बाहर गए थे लेकिन कोरोना महामारी के दौरान वापस घर लौट आए। गाँव में कम पलायन का सबसे बड़ा कारण यह है की यहाँ के लोग अपनी थोड़ी बहुत आजीविका चलाने के लिए पनीर का काम करते हैं। थोड़ी-बहुत खेती बाड़ी भी लोग कर लेते हैं जिसकी वजह से पलायन करने की ज़रूरत महसूस नहीं होती। अब तो गांव के युवा भी रोजगार के लिए शहर न जाकर पनीर के व्यवसाय में ही लग जाते हैं, जो गांव के लिए अच्छा संकेत है। रौतू की बेली गांव के ग्रामीणों की मेहनत आज अन्य ग्रामीणों के लिए भी एक बेहतरीन उदाहरण है। जिससे गांव में ही स्वरोजगार को बढ़ावा देकर पलायन को रोका जा सकता है। यदि सरकार भी मदद करे तो इस रोजगार को और बढ़ाया जा सकता है। और सरकार के रिवर्स पलायन का सपना साकार हो सकता है

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