सियासत की कंटीली डगर
- बीते आम चुनाव से पहले हुए मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जैसे ध्रुवीकरण के हालात नहीं
- रालोद की सदभावना यात्राओं ने बनाया फिर जाट-मुस्लिम गठजोड़ का माहौल
- भाजपा के लिये सपा—बसपा और रालोद की संयुक्त चुनौती ने कठिन बनाई राह
- केंद्र और राज्य की ऐंटी-इन्कम्बैंसीका भी असर कई जगह प्रत्याशियों के खिलाफ भी गुस्सा
- लोगों ने अच्छे दिन की आस में गंवाये पांच साल, गन्ना किसानों में भी भारी रोष
इस लोकसभा चुनाव के पहले चरण में ध्रुवीकरण के लिहाज से संवेदनशील पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आठ सीटों पर भी मतदान हो रहा है। हालांकि भाजपा के लिए परिस्थितियां वर्ष 2014 के आम चुनाव सरीखी नहीं हैं। या यूं कहिये कि उस समय की जो मोदी लहर और वादे थे, इस बार चुनावी फिजां से गायब हैं
गौरतलब है कि वर्ष 2014 के आम चुनाव में ध्रुवीकरण का माहौल था। उस वक्त चुनाव मुजफ्फरनगर में दंगे के साये में हुए थे। सितंबर 2013 में हुए दंगों का चुनावी माहौल पर भी असर दिख रहा था। दंगों में 60 लोगों की मौत हो गई थी और हजारों लोगों को बेघर होना पड़ा था। दंगे ने इलाके में जाट-मुस्लिम समीकरण को भी प्रभावित किया था। इनके अलावा जाटव और गुर्जरों के साथ मुस्लिम समाज के संबंधों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा था। हालांकि इस बार रालोद नेता अजित सिंह और उनके बेटे जयंत ने क्षेत्र में सदभावना यात्राएं निकालकर माहौल सुधारने का प्रयास किया।
उस समय भाजपा के सामने यूपी में अखिलेश यादव की सरकार के खिलाफ एंटी-इन्कम्बैंसी का भी असर था, लेकिन इस दौरान बीजेपी एक तरह से दोहरी एंटी-इन्कम्बैंसी झेल रही है। केंद्र और राज्य में उसकी सरकार है, ऐसे में उसे दोनों स्तरों पर लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ सकती है। हालांकि कुछ का मानना है कि दोनों जगहों पर सरकारें होने से भाजपा को काम कराने में आसानी हुई है, लेकिन गन्ना बकाया जैसे मामले पार्टी के खिलाफ जा सकते हैं। इस बार बीजेपी के सामने एकजुट विपक्ष की चुनौती है।
पिछले चुनाव में सपा, बसपा, रालोद और कांग्रेस ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था लेकिन इस बार सपा, बसपा, रालोद के महागठबंधन के चलते यूपी में भाजपा को कड़ी चुनौती मिलती दिख रही है। हालांकि कांग्रेस इस गठजोड़ का हिस्सा नहीं है, लेकिन यूपी की बहुत ही कम सीटों पर उसका प्रभाव है। ऐसे में महागठबंधन की ओर से भाजपा को कड़ी चुनौती मिल सकती हैै। कई सीटों पर भाजपा को एंटी-इन्कम्बैंसी का भी सामना करना पड़ सकता है। इस स्थिति को भांपते हुए भाजपा ने कई जगहों पर टिकट बदले भी हैं।
हालांकि चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा नेताओं ने अपने भाषणों से कई बार ध्रुवीकरण के प्रयास किए, लेकिन मुस्लिम और दलित नेताओं ने कोई प्रतिक्रिया देने के बजाय मौन साध रखा है।