जीतकर भी हारेंगे जनरल साहब!

ये सियासत नहीं आसां…

  • पूर्व मुख्यमंत्री खंडूड़ी के सामने पैदा हुई अजीबोगरीब स्थिति
  • गढ़वाल सीट पर एक तरफ पुत्र तो दूसरी तरफ शिष्य मैदान में
  • बेटा जीता तो जिंदगीभर रहेगी चेले की हार की कसक

देहरादून। सारी जिंदगी न जाने कितने मोर्चों पर लड़ी जंग में जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी ने फतह हासिल की है। फौजी सफर के बाद सियासत के सफर में केंद्र में मंत्री रहे और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पद पर आसीन रहे। उनके कद और अहमियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके मुख्यमंत्रित्व काल में वर्ष 2012 में हुए विधानसभा चुनाव का चेहरा उन्हें ही बनाया गया था। उस समय भाजपा ने चुनाव से पहले ही उन्हें अपना भावी मुख्यमंत्री घोषित कर दिया था और नारा दिया था— ‘खंडूड़ी है जरूरी’। वो अलग बात है कि वह खुद ही कोटद्वार से चुनाव हार गये और सरकार भी कांग्रेस की बनी। इसके बावजूद उनकी छवि बरकरार रही और ऐसी विषम परिस्थिति उनके सामने कभी नहीं आई जैसी इस लोकसभा चुनाव में सामने आकर खड़ी हो गई है।
पहली बात तो यह है कि जिस भाजपा ने उन्हें इतना सम्मान दिया और सफलता के शिखर तक पहुंचाया, उसी पार्टी के खिलाफ उनके पुत्र ने बगावत करते हुए मुख्य विरोधी पार्टी कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली और वह अपने पिता की विरासत मानी जाने वाली गढ़वाल सीट पर भाजपा प्रत्याशी तीरथ सिंह रावत के खिलाफ चुनाव मैदान में खम ठोक चुके हैं। इससे उनकी छवि को धक्का तो लगा ही, भाजपा में साख भी धूमिल हुई है।
दूसरी ओर उनके सियासी सफर में उनके सुख—दुख में साये की तरह साथ रहे और उनके राजनीतिक शिष्य माने जाने वाले तीरथ सिंह रावत उनके बेटे के सामने मुकाबले में खड़े हैं। 
गुरु के प्रति इस गहरे सम्मान के लिये तीरथ को विपक्षी भी आदर के भाव से देखते हैं और कई दिग्गज नेताओं का तो यह भी मानना है कि काश उन्हें भी कोई ‘तीरथ’ जैसा स्वामीभक्त शिष्य मिल गया होता तो शायद आज उनकी हैसियत और कद दोनों और बढ़ गये होते। एक विपक्षी नेता का तो यहां तक कहना है कि जब नंद राजा का विनाश कर चंद्रगुप्त मौर्य सिंहासन पर बैठे तो नंद के परम स्वामीभक्त मंत्री राक्षस ने चंद्रगुप्त के खिलाफ लड़ाई जारी रखी। यह बात अलग है कि चाणक्य की कूटनीति से वह हार गये और पकड़ भी लिये गये। जब उन्हें चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में पेश किया गया तो चंद्रगुप्त ने उनके लिये फांसी की सजा सुना दी। जिसका चाणक्य ने विरोध किया और राक्षस को ससम्मान चंद्रगुप्त का मंत्री घोषित कर दिया। 
इससे चंद्रगुप्त बेहद आश्चर्यचकित हुए और अपने गुरु व प्रधानमंत्री कौटिल्य से इसका कारण पूछा तो उन्होंने जवाब दिया कि जो व्यक्ति अपने स्वामी की मौत के बाद भी उनके प्रति स्वामीभक्ति नहीं छोड़ सकता, उसकी निष्ठा संदेह से परे है। इतिहास गवाह है कि चाणक्य की बात अक्षरश: सही साबित हुई और राक्षस बहुत विश्वासपात्र और अच्छा मंत्री साबित हुआ। यही बात तीरथ के बारे में सही उतरती है। 
भाजपा के उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि गढ़वाल सीट पर जनरल साहब की सिफारिश पर उनके शिष्य तीरथ को टिकट दिया गया है। अब समीकरण बदलने से जनरल साहब किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में दिख रहे हैं। हालांकि उन्होंने अभी तक भाजपा की किसी भी रैली में शिरकत नहीं की है और न ही किसी सार्वजनिक मंच से बेटे या शिष्य के बारे में अपनी मंशा जाहिर की है। इसके बावजूद उनकी अग्निपरीक्षा तय है।
इसकी वजह साफ है कि अगर पुत्र चुनाव जीत जाते हैं तो अपने प्रिय शिष्य की हार की कसक उन्हें जिंदगीभर सालती रहेगी और अगर उनके शिष्य जीत जाते हैं तो घर में अपने बेटे का सामना करना भी इतना आसान नहीं होगा। उनकी इस नियति पर भाजपा ही नहीं, बल्कि विपक्षी पार्टियों के साथ राजनीतिक विश्लेषकों की भी नजरें टिकी हैं।

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