10 से 15 हजार करोड़ दे सकते हैं देवभूमि के मंदिर

  • विपक्ष व पंडे-पुरोहित छीने गये हक -हुकूकों पर क्यों नहीं कर रहे बात
  • चुनावी वर्ष आते ही हरीश रावत भी राज्यहित के फैसले को बताने लगेे गलत
  • बड़ा सवाल, बोर्ड बनने के बाद पंडे-पुरोहितों का कौन सा हक छीना गया मीडिया से लेकर कोई भी इस पर बात करने को नहीं तैयार

देहरादून। चुनावी वर्ष आते ही कांग्रेस ने सरकार को घेरने के लिए कुछ मुददों को हवा देना शुरू कर दिया है। इनमें प्रमुख रूप से भू-कानून और देवस्थानम् बोर्ड प्रमुख हैं। भू-कानून पर कांग्रेस ने इससे पहले कभी भी कुछ नहीं बोला, जबकि देवस्थानम् बोर्ड पर चंद पंडों व पुरोहितों के विरोध को मीडिया का सर्पोट मिलते देख कांग्रेस ने इसको भी अपनी आवाज देना शुरू कर दिया है। भू-कानून बनाने की आवाज कुछ माह पहले ही उठी है, इससे पहले इस विषय पर कोई भी कुछ नहीं बोल रहा था। जबकि देवस्थानम् बोर्ड का विरोध पंडे-पुरोहित तभी से कर रहे हैं, जब 2०१८ में त्रिवेंद्र रावत सरकार ने धामों के बेहतर प्रबंधन के लिए उत्तराखंड चारधाम देवस्थानम् प्रबंधन बोर्ड बनाया था।

भाजपा विधायकों के प्रचंड समर्थन से बने इस बोर्ड का लेकर तब कांग्रेस ने भी सदन में सिर्फ सांकेतिक विरोध किया था। देवस्थानम् बोर्ड का विधेयक पारित हो जान के बाद जब पंडे-पुरोहितों को लगा कि भविष्य में मंदिरों में आने वाले दान और दक्षिणा पर उनका एकाधिकार नहीं रहेगा और यह सब सरकार के खजाने में चले जाएगा तो विरोध की शुरुआत हुई। इस विरोध में वे लोग भी शामिल हुए, जिन्होंने धामों में जमीनें कब्जा करके होटल और अन्य व्यवसाइक गतिविधियां शुरू की हुई हैं। उन्हें इस बात की आशंका है कि बोर्ड गठन के बाद भविष्य में मंदिरों में आनेे वाल दान को देश के अन्य मंदिरों की तरह ही सीधे दानपात्रों में लिया जाएगा तथा दान दक्षिणा पर पहले की तरह उनका अधिकार नहीं रहेगा, तो विरोध शुरू कर दिया।
विरोध के बीच ही सरकार को और मजबूत भी करती रही। इस दौरान न केवल बोर्ड में नये सदस्य बनाये गये बल्कि बोर्ड के खाते में सरकार ने करीब 5० करोडड़ से अधिक की धनराशि भी डाल कर यह संदेश दे दिया है कि सरकार देवस्थानम् बोर्ड को राज्यहित में लिया गया निर्णय मानती है और इसलिए इसे भंग करने जैसा कोई विचार नहीं है।
इस दौरान विपक्षी दल कांग्रेस ने पंडे-पुुरोहितों के आंदोलन को मिल रहे मीडिया सर्पोट के चलते इसे भुनाने की कोशिश की है। पिछले तीन साल से इस मुद्दे पर पूरी तरह चुप्पी साधे रखने वाले हरीश रावत ने भी अब इस पर बोलना शुरू कर दिया है। इसके विपरीत सरकार ने पंडों-पुरोहितों की बात सुनने के लिए पूर्व राज्य सभा सांसद मनोहरकांत ध्यानी की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय कमेटी गठित कर दी है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके ध्यानी ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि पंडों-पुरोहितों की समस्याओं का समाधान किया जाएगा, लेकिन बोर्ड को भंग करने का कोई औचित्य नहीं है। एक बड़ी बात यह कही जा सकती है कि आखिर हरीश रावत यकायक बोर्ड के विरोध में क्यों शामिल हो गये। क्या रावत ने भी 2022 में सत्ता वापसी के लिए किसी भी हद तक जाने की मन बना लिया है। क्या हरीश रावत यह नहीं चाहते कि चारधामों में बेहतर प्रबंधन हो, चारधामों के लिए आने वाले श्रद्धालुओं से देश के दूसरे मंदिरों की तरह ही उत्तराखंड को भी पैसा मिले, क्या रावत यह मानते हैं मंदिरों में चंद लोगों को पूरी मनमानी करने दी जाए या फिर उसका बेहतर प्रबंधन करके भविष्य की आर्थिकी के लिए इन मंदिरों का भी बेहतर प्रबंधन किया जाए।
विशेषज्ञों का मानना है कि उत्तराखंड में पर्यटन ही इस राज्य की आर्थिकी का सबसे बड़ा आधार बन सकता है। पर्यटन यहां तीन तरह का है। जिसमें सबसे बड़ा भाग धार्मिक पर्यटन का है, जो कुल पर्यटकों की संख्या का लगभग 75 प्रतिशत है। जबकि घूमने वाले और साहसिक पर्यटन में भी धीरे-धीरे लोग बढ़ रहे हैं। विशेेषज्ञों का अनुमान है कि देवभूमि के सभी मंदिरों का सही तरीके से प्रबंधन हो जाए तो राज्य को यहां के हजारों मंदिरों से हर साल 10 से 15 हजार करोड़ की आय हो सकती है, लेकिन इसके लिए सरकार को हिम्मत दिखाकर एकाधिकार को तोडकर लूट रोकनी होगी, वर्ना यह राज्य पिछले 20 वर्षों की तरह भारत सरकार के आगे कटोरा लिये खड़ा रहेगा।
एक बात साफ होती जा रही है कि प्रदेश के हित के उठाये गये इस कदम का विरोध विपक्ष व मीडिया का एक तबका क्यों कर रहा है। एक सवाल दो तीन साल बाद भी अनुत्तरित दिख रहा है। पंडे-पुरोहितों के हक हुकूकों छीनने के नाम पर जो प्रायोजित विरोध हो रहा है उसमें यह नहीं बताया जा रहा है कि बोर्ड बनने से पहले क्या हक-हुकूक थे और अब बोर्ड बनने के बाद उसमें से क्या छीना गया। यह बात न तो मीडिया ही बता पा रहा है, न विपक्ष ही इस पर कुछ कह पा रहा है और न ही पंडे और पुरोहित ही इस पर कुछ बोल पा रहे हैं। सब के सब एक ही बात बोल रहे हैं कि देवस्थानम् बोर्ड भंग हो। आखिर इसका जवाब भी तो विपक्ष व पंडे-पुरोहित दें कि देवस्थानम् बोर्ड क्यों भंग हो। यदि वे कारण बताते हुए बोर्ड को भंग करने की मांग करते तो आम आदमी भी समझ सकता था कि बोर्ड बनाकर गलत किया या सही किया।

ध्यानी को उच्चस्तरीय समिति का अध्यक्ष बनाया

राज्य सभा के पूर्व सांसद व भाजपा के वरिष्ठ नेता मनोहर कांत ध्यानी को देवस्थानम बोर्ड व हक-हकूकों को लेकर बनायी गयी गयी उच्चस्तरीय समिति का अध्यक्ष बनाया गया है। विडंबना यह है कि प्रतिष्ठित समाचार पत्रों ने ध्यानी की नियुक्ति को खबर बनाने के बजाय, पंडे-पुरोहितों के द्वारा ध्यानी की नियुक्ति का विरोध करने को खबर बनाया। दो अलग-अलग अखबारों की खबरों को बारीकी से पढ़ें तो दोनों ने एक ही लाइन पर खबर लिखी। मतलब दोनों अखबार मंदिरों के प्रबंधन से अधिक महत्व लगभग पांच सौ पंडे-पुरोहितों के हितों की तथाकथित लड़ाई को दे रहे हैं। दो साल से देवस्थानम बोर्ड का मसला चल रहा है,लेकिन किसी भी अखबार ने आज तक इस विषय पर बात नहीं की कि इस बोर्ड को क्यों बनाया गया है, देश में दूसरे मंदिरों की स्थिति क्या है। देश के अन्य मंदिरों में हर वर्ष अरबों रुपये की आय हो रही है, मगर उत्तराखंड के मंदिरों मेंं आने वाला भक्त पैसा क्यों नहीं दे रहा है, अगर यहां भी भक्त पैसा दे रहा है तो पैसा जा कहां रहा है, शायद किसी भी अखबार या मीडिया चैनल ने इस विषय पर कभी बात नहीं की। ई न्यूज अपने पाठकों से वादा करता है कि राज्य हित के विभिन्न विषयों पर इसी तरह बेवाक तरीके से रिपोर्टिंग जारी रखेगा।

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