बेबस मजदूरों की मौत ‘अक्षम्य त्रासदी’!

प्रेमजी का छलका दर्द

  • विप्रो फाउंडर अजीम प्रेमजी ने देशभर में हादसों में मजदूरों की मौत पर जताया दुख
  • कहा, महामारी रोकने के लिए लॉकडाउन जरूरी लेकिन सबको रुला रहीं ये मौतें
  • सामाजिक असुरक्षा कि चलते यह त्रासदी बहुत बड़ी विपदा के कष्टदायक संकेत

नई दिल्ली। कोरोना वायरस के संक्रमण के चलते लॉकडाउन में रोजगार छिनने के बाद पैदल सैकड़ों किलोमीटर का सफर तय कर अपने घर लौट रहे मजदूरों की लगातार हादसों में हो रही मौतों पर दिग्गज उद्योगपति और विप्रो के फाउंडर अजीम प्रेमजी का दर्द छलक गया है।
उन्होंने कहा कि पटरी पर सोये 13 मजदूरों की ट्रेन से कटकर मौत हो गई और घटना की जांच चल रही है, लेकिन इसके पीछे की सच्चाई से हम वाकिफ हैं। उन्होंने कहा, ‘आजीविका खोने वाले लाखों लोगों की तरह वे भी भूखे थे। इसलिए उन्होंने भी सैकड़ों किलोमीटर की दूरी पैदल तय कर अपने घर पहुंचने का फैसला किया। वे यह मानकर पटरी पर सो गए कि ट्रेन नहीं चलेगी, क्योंकि लॉकडाउन है। कुछ महामारी को रोकने के लिए लॉकडाउन जरूरी है, लेकिन ये मौतें अक्षम्य त्रासदी हैं।’
अपने एक लेख में प्रेमजी ने कहा, ‘मैं अक्षम्य शब्द का इस्तेमाल हल्के में नहीं कर रहा हूं। दोष हमारा है, हमने जिस समाज को बनाया है, उसका है। यह त्रासदी बहुत बड़ी विपदा के बेहद कष्टदायक संकेतों में से एक है, जिसे हमारे वे नागरिक भुगत रहे हैं, जो बेहद कमजोर और सबसे गरीब तबके के हैं।’
उन्होंने कहा, ‘सच तो यही है कि हम बहुत बड़ी आपदा से गुजर रहे हैं। यह सुनना हमें और अचंभित करता है कि कंपनियों के साथ मिलीभगत कर कई राज्य सरकारें मजदूरों के हितों की रक्षा करने वाले श्रम कानूनों को निलंबित कर रही हैं या कर चुकी हैं। इनमें औद्योगिक विवादों को निपटाने, रोजगार की सुरक्षा, मजदूरों की सेहत एवं उनकी हालत, न्यूनतम मजदूरी, व्यापार संगठन, कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स तथा प्रवासी मजदूरों से जुड़े कानून शामिल हैं।’
अजीम प्रेमजी ने कहा, ‘ये 17 मजदूर इसलिए मारे गए, क्योंकि हमारे यहां लगभग न के बराबर सामाजिक सुरक्षा है और मजदूरों को बेहद कम सुरक्षा मिलती है। महामारी की सूनामी में गरीबी और असमानता ही नहीं बल्कि इनके कारण भी लाखों लोगों का जीवन छिन्न-भिन्न हो गया।’
प्रेमजी ने कहा, ‘मैंने जितने समय तक काम किया, उस दौरान कई लेबर यूनियनों और लेबर लॉ से पाला पड़ा। कठोर कानूनों और गलत काम करने वाले ट्रेड यूनियनों से निपटे बिना ही मैंने अपने 50 साल नहीं गुजारे। लेकिन पिछले कुछ दशकों में श्रम कानूनों में इस तरह का बदलाव आया, जो शायद ही उद्योग की सबसे बड़ी बाधाओं में रहा हो। साथ ही सामाजिक सुरक्षा के उपाय नहीं बढ़ाए गए, जिसके कारण कर्मचारियों की हालत बद्तर हुई। पहले से मौजूद ढीले कानूनों को और ढीला करने से आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा नहीं मिलेगा, इससे केवल कम वेतन पाने वाले कर्मचारियों और गरीबों की हालत खराब होगी।’

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